Friday, January 25, 2013

बना रहे सपने देखने का अधिकार.....




शब्द। मैं नहीं जानती कि कहां से आते हैं। एक लेखिका जो वेदना में है। शायद, इस अवस्था में पुन: जीने की इच्छा एक शरारतभरी इच्छा है। अपने 90वें वर्ष से बस थोड़ी ही दूर पहुंचकर मुझे मानना पड़ेगा कि यह इच्छा एक संतुष्टि देती है, एक गाना है न 'आश्चर्य के जाल से तितलियां पकड़ना..' इसके अतिरिक्त उस 'नुकसान' पर नजर दौड़ाइए जो मैं आशा से अधिक जीकर पहुंचा चुकी हूं। 88 या 87 साल की अवस्था में मैं प्राय: छायाओं में लौटते हुए आगे बढ़ती हूं। कभी-कभी मुझमें इतना साहस भी होता है कि फिर से प्रकाश में चली जाऊं। मैं स्वयं को दोहरा रही हूं। जो हो चुका है उसे आपके लिए फिर से याद कर रही हूं। जो है, जो हो सकता था, हुआ होगा।
अब स्मृति की बारी है कि वह मेरी खिल्ली उड़ाए। मेरी मुलाकात कई लेखकों, मेरी कहानियों के चरित्रों, उन लोगों के प्रेतों से होती है जिन्हें मैंने 'जिया' है, प्यार किया है और खोया है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक ऐसा पुराना घर हूं जो अपने वासियों की बातचीत का सहभागी है, लेकिन हमेशा यह कोई वरदान जैसा नहीं होता है! लेकिन 'यदि कोई व्यक्ति अपनी शक्ति के अंत पर पहुंच जाए तब क्या होगा?' शक्ति का अंत कोई पूर्णविराम नहीं है। न ही यह वह अंतिम पड़ाव है जहां आपकी यात्रा समाप्त होती है। यह केवल धीमा पड़ना है, जीवनशक्ति का ह्रास। वह सोच जिससे मैंने प्रारंभ किया था वह है 'आप अकेले हैं।' शांतिनिकेतन में थी, प्रेम में पड़ी, जो कुछ भी किया बड़े उत्साह से किया। 13 से 18 वर्ष की अवस्था तक मैं अपने एक दूर के भाई से बहुत प्रेम करती थी। उसके परिवार में आत्मघात की प्रवृत्ति थी और उसने भी आत्महत्या कर ली। सभी मुझे दोष देने लगे, कहने लगे कि वह मुझे प्यार करता था और मुझे न पा सका इसीलिए उसने आत्मघात कर लिया। यह सही नहीं था। उस समय तक मैं कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आ चुकी थी और सोचती थी कि ऐसी छोटी अवस्था में यह कितना घटिया काम था। मुझे लगता था कि उसने ऐसा क्यों किया। मैं टूट गई थी। पूरा परिवार मुझे दोष देता था। जब मैं सोलह साल की हुई, तभी से मेरे माता-पिता विशेषकर मेरे संबंधी मुझे कोसते थे कि इस लड़की का क्या किया जाए। यह इतना ज्यादा बाहर घूमती है। तब इसे बुरा समझा जाता था। मध्यवर्गीय नैतिकता से मुझे घृणा है। यह कितना बड़ा पाखंड है। सब कुछ दबा रहता है। लेखन मेरा वास्तविक संसार हो गया, वह संसार जिसमें मैं जीती थी और संघर्ष करती थी। समग्रत:। मेरी लेखन प्रक्रिया पूरी तरह बिखरी हुई है। लिखने से पहले मैं बहुत सोचती हूं, विचार करती हूं, जब तक कि मेरे मस्तिष्क में एक स्पष्ट प्रारूप न बन जाए। जो कुछ मेरे लिए जरूरी है वह पहले करती हूं। लोगों से बात करती हूं, पता लगाती हूं। तब मैं इसे फैलाना आरंभ करती हूं। इसके बाद मुझे कोई कठिनाई नहीं होती है, कहानी मेरी पकड़ में आ चुकी होती है। जब मैं लिखती हूं, मेरा सारा पढ़ा हुआ, स्मृति, प्रत्यक्ष अनुभव, संगृहीत जानकारियां सभी इसमें आ जाते हैं।
जहां भी मैं जाती हूं, मैं चीजों को लिख लेती हूं। मन जगा रहता है पर मैं भूल भी जाती हूं। मैं वस्तुत: जीवन से बहुत खुश हूं। मैं किसी के प्रति देनदार नहीं हूं, मैं समाज के नियमों का पालन नहीं करती, मैं जो चाहती हूं करती हूं, जहां चाहती हूं जाती हूं, जो चाहती हूं लिखती हूं। नरक के कई नाम हैं। एक नाम जो मुझे विशेष पसंद है, वह है ओशि पत्र वन। ओशि का अर्थ तलवार है। और पत्र अर्थात एक पौधा जिसके तलवार सरीखे पत्ते हों। ऐसे पौधों से भरा हुआ जंगल। और आपकी आत्मा को इस जंगल से गुजरना होता है। तलवार सरीखे पत्ते उस में बिंध जाते हैं। आखिर आप नरक में अपने पापों के कारण ही तो हैं। इसलिए आपकी आत्मा को इस कष्ट को सहना ही है। अंत में मैं उस विचार के बारे में बताऊंगी जिस पर मैं आराम से समय मिलने पर लिखूंगी। मैं अरसे से इस पर सोचती रही हूं। वैश्वीकरण को रोकने का एक ही मार्ग है। किसी जगह पर जमीन का एक टुकड़ा है। उसे घास से पूरी तरह ढक जाने दें। और उस पर केवल एक पेड़ लगाइए, भले ही वह जंगली पेड़ हो। अपने बच्चे की तिपहिया साइकिल वहां छोड़ दीजिए। किसी गरीब बच्चे को वहां आकर उससे खेलने दीजिए, किसी चिड़िया को उस पेड़ पर रहने दीजिए। छोटी बातें, छोटे सपने। आखिर आपके भी तो अपने छोटे-छोटे सपने हैं। कहीं पर मैंने 'दमितों की संस्कृति' पर लिखने का दावा किया है। यह दावा कितना बड़ा या छोटा, सच्चा या झूठा है? जितना अधिक मैं सोचती और लिखती हूं, किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उतना ही कठिन होता जाता है। मैं झिझकती हूं, हिचकिचाती हूं। मैं इस विश्वास पर अडिग हूं कि समय के पार जीने वाली हमारे जैसी किसी प्राचीन संस्कृति के लिए एक ही स्वीकार्य मौलिक विश्वास हो सकता है-सहृदयता। सम्मान के साथ मनुष्य की तरह जीने के सभी के अधिकार को स्वीकार करना।
लोगों के पास देखने वाली आंखें नहीं हैं। अपने पूरे जीवन में मैंने छोटे लोगों और उनके छोटे सपनों को ही देखा है। मुझे लगता है कि वे अपने सारे सपनों को तालों में बंद कर देना चाहते थे, लेकिन किसी तरह कुछ सपने बच गए। कुछ सपने मुक्त हो गए। जैसे गाड़ी को देखती दुर्गा , एक बूढ़ी औरत, जो नींद के लिए तरसती है, एक बूढ़ा आदमी जो किसी तरह अपनी पेंशन पा सका। जंगल से बेदखल किए गए लोग, वे कहां जाएंगे। साधारण आदमी और उनके छोटे-छोटे सपने। उनका अपराध यही था कि उन्होंने सपने देखने का साहस किया। उन्हें सपने देखने की भी अनुमति क्यों नहीं है? जैसा कि मैं सालों से बार-बार कहती आ रही हूं, सपने देखने का अधिकार पहला मौलिक अधिकार होना चाहिए। यही मेरी लड़ाई है, मेरा स्वप्न है। मेरे जीवन और मेरे साहित्य में।
[लेखक महाश्वेता देवी, जयपुर साहित्योत्सव 2013 के उद्घाटन भाषण का संपादित अंश]

साभार दैनिक जागरण 


Thursday, January 24, 2013

मेरा स्वप्न......





रचने चली हूँ 
फिर एक संसार ...
जिसमे है -
वो टिमटिम आँखों वाली 
दुबली पतली बार्बी ...
साथ खड़ा वो 
मासूम हरा श्रैक .....
न जाने कहाँ से .
आया टॉम यहाँ पर 
शायद कर  रहा है 
पीछा प्यारे जैरी का ....
ये क्या !
काकश ने पीछे से आकर 
 खाया है  काट 
मेरे गोलू श्रैक  को ..
गोल गोल सी आँखों में 
अब मोटी मोटी बूँदें हैं .....

ऐ बार्बी -
रोक लो  श्रैक  के 
आंसुओं को 
आएगी विली तो 
काकश के कन्पुच्ची लगाएगी ..
अरे  आज तो -
मोगली के साथ 
छोटा भीम भी है ....
लगता है -
फिर आज एक 
नया खेल शुरू हो जायेगा .....

अर्र ....अर्र .....
ये क्या ......
होने लगा क्यों 
ये संसार कुछ धुंधला सा ....

धत्त ....

वो तो प्यारा सपना था 
जो खुली आँखों से देखा था .....
सारे पात्र मेरी 
मुस्कराहटों के -
एक साथ सब 
एक स्वप्न तले ........

क्यों गुड है ना :)


प्रियंका राठौर 

Thursday, January 10, 2013

मधुशाला.... ( कहानी )





हाल का टीवी आन था ... अमिताभ बच्चन का इन्टरव्यू चल रहा था और अमिताभ मधुशाला की कुछ पंक्तियाँ सुना रहे थे .... पारु उधर से गुजरी ... पंक्तियाँ सुनते ही बुदबुदाई “आई हेट अल्कोहल .... पता नहीं लोग , इस पर क्यों लिखते हैं .... दुनिया में टॉपिक कम हैं क्या ?”
तभी पीछे से आती आवाज ने उसकी तन्द्रा भंग की “कभी पढ़ के देख पग्गल दास ....ये कोई दारू की कहानी नहीं है –समझी” कहते हुए उसकी दीदी आगे बढ़ गयी।
“आई नो दी – जानती हूँ हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के बारे में ....समाज की व्यथा को दारू के माध्यम से दिखाया है ..... पता है दी – कल यूं ही गूगल पर सर्च कर रही थी ...मधुशाला पढ़ने के लिए .... यू कांट बिलीव .... बहुत सारी मधुशालाएँ सामने आ गयीं ... सच उस पल तो ऐसा ही लगा जैसे दुनिया के सारे मेल्स ने मधुशाला का ठेका अपने सर ही उठा रखा है....” पारू बोली।

वातावरण में हंसी की आवाज गूंज गयी .... तभी टीवी पर टकटकी लगाये दो आँखों ने उन दोनों को घूर कर देखा .... जैसे बिल्ली को देख चूहे भागते हैं ऐसे ही दोनों बहनें पापा की आँख देख अपने अपने कमरों की ओर छितर गयीं।
पारु अपने कमरे में किताबों में उलझी पड़ी थी जैसे कोई मकड़ी अपने ही बुने जाले में फंस जाये। तभी दी कमरे में दूध का गिलास लिए आयीं .... “ओये लाले की जान ...तुसी क्या कर रही हो ... तुम किताबें पढ़ रही हो या किताबें तुम्हें पढ़ रही हैं , समझ नहीं आ रहा” कह कर मुस्कराते हुए उन्होंने पारु की ओर दूध का गिलास बढ़ाया।
“आप भी ना दी ... हर समय दूध का दही करती रहती हो ... मैं परेशान हूँ और आप मुझे लम्बा करने में जुटी पड़ी हो ...”
“हुआ क्या ?”
“कुछ नहीं दी ... कल एक कहानी ब्लॉग पर लिखने की सोच रही हूँ .... लेकिन कुछ समझ नहीं पा रही .... इसलिए कृष्णा सोबती ,मन्नू भंडारी वगैरह को देख रही थी ... की शायद कुछ मिल जाये ...”
दी मुस्करायी और पारु के सर पर हाथ फेरते हुए बोली - “मेरी गुड़िया रानी .... साहित्य का ढेर इकट्ठा कर लेने से लेखन नहीं आता ... यह तो स्वत : स्फूर्त भाव है .... मानती हूँ , अच्छा साहित्य पढ़ने से शब्दों का भण्डार विकसित होता है ,भाषा शैली को पकड़ मिलती है ... लेकिन लेखन का मर्म लेखक की संवेदना में छुपा होता है ... किसी भी विधा में लिखो ... बस उसमें डूब जाओ .... तुममें और तुम्हारे चारित्रिक पात्र में कोई अंतर ना रह जाये .... तब जो शब्द निकलेंगे वे ही पाठक की भी संवेदना हो जायेंगे .... और यह वह चरम बिंदु है , जहाँ लेखन का सही अर्थ प्राप्त होता है। कबीर , सूर , मीरा .... उन्होंने तो किसी को पढ़कर नहीं लिखा .... केवल अपनी संवेदना को जिया और उससे जो शब्द गढ़ गए ...अमर हो गए ....चाहे वह सामाजिक संवेदना हो या फिर भक्ति और प्रेम की संवेदना।”
“तो क्या दी ! पढ़ना छोड़ दूँ ?”
“ना रे ! मैंने ऐसा थोड़े ही कहा है ... पढ़ो खूब पढ़ो – साहित्य , दर्शन , इतिहास , भूगोल सभी कुछ पढ़ो .... इसी से तुम्हे समाज की दशा व दिशा का पता चलेगा। पता नहीं कौन सा तथ्य तुम्हारे चिंतन में समां जाये और तुम्हारी संवेदना का मूल हो जाये। खुद को हमेशा अपडेट रखो .... ओके के के” कहते हुए दी चली गयीं।
इन बातों में पारु के भीतर कहीं ‘संवेदना’ अपनी पैठ बना चुकी थी। वह दूध से भरा गिलास जो अब तक उसके लिए एक औपचारिकता थी ,आज वही दूध माणिक के भीतर मोती सा नजर आ रहा था।
अगली सुबह दी ने उससे पूछा – “कुछ लिखा गुड़िया रानी ?”
“ना दी – कल जल्दी सो गयी थी ... जब लिख लूंगी आपको पढ़वाउंगी। आज क्लास के लिए जल्दी जाना है , शाम को बात करती हूँ।”
ब्रेक टाइम में पारु और श्यामल धीरे धीरे खुसफुसा रही थीं ... पारू श्यामल से बोली –“मस्त बात बताती हूँ ... परसों जब मैं मधुशाला पर सर्च कर रही थी , तो किसी अनिमेष की लिखी मधुशाला का लिंक भी सामने आया था। सच बहुत अच्छा लिखा था उसने....”
श्यामल की आँखें चमकी – ‘अनिमेष’ ..... ओये होए ... कौन है , क्या करता है ....”
“अरे पग्गल दास मैं तो जानती भी नहीं उसे .... चल आज फिर सर्च मारती हूँ .... कल तुझे पूरी डिटेल हिस्ट्री दूँगी .....”
और दोनों सहेलियाँ ठहाके मार कर हंसने लगीं।
वक्त के साथ अनिमेष इतिहास हो चला था। जिन्दगी बढ़ती जा रही थी। एक दिन पारु के मोबाइल पर एक कॉल आया। पारु के हैलो बोलते ही उधर से आवाज आई ....
“कैन आई टॉक टू राजीव ...”
“राजीव ?”
“मे आई नो हु इज ऑन दा लाइन ?”
जवाब था – “अनिमेष – अनिमेष भाटिया “
“सॉरी रांग नंबर .... यहाँ कोई राजीव नहीं है...” पारु की आवाज में तल्खी थी।
“लिसिन मैम .... मुझे यही नंबर दिया गया था ...”
“इट्स ओके ... बट यहाँ कोई राजीव नहीं है ...ये पारु महाजन का नंबर है ....”
कॉल डिस कनेक्ट हो गयी थी। तभी अचानक पारु के दिमाग में बिजली सी कौंध गयी ... ‘अनिमेष’ ..... अगले ही पल वह मुस्करायी ....और एक लम्बी ठंडी साँस के साथ बुदबुदाई ... ‘अनिमेष’ ..... नो वे ..... सोचते हुए वह रसोई की ओर बढ़ गयी ... दीदी के काम में हाथ बंटाने के लिए।
कहते हैं ,नियति अपनी विसात बिछा के रखती है। कौन – कब और कहाँ मिलेगा यह वह पहले से ही तय रखती है ,बस उसकी चाल का ही इन्तेजार होता है।
आज फिर ना चाहते हुए भी पारु गूगल सर्च में अनिमेष को ढूँढने लगी। अनिमेष के ब्लॉग से लेकर फेसबुक प्रोफाइल तक सारी परतें खुलने लगीं। चाह लो अगर तो खुदा भी मिल जाता है .... उसको समझते देर ना लगी की जो रांग कॉल था वह ‘अनिमेष’ का ही था।
उसने तुरंत ही श्यामल को फोन लगाया – “ ओये डियर अनिमेष मिल गया .... यू नो आज इतेफाक से उसी का रांग कॉल भी मेरे पास आया था ” पारू श्यामल को बताते हुए चिड़िया सी फुदक रही थी , मानो स्वाति नक्षत्र की बूँद पा ली हो।
“पता है ... वह आई आई टीयन है.... सोफ्टवेयर इंजीनियर। माइक्रोसोफ्ट में जॉब कर रहा है। विश्वास नहीं होता आई आई टीयन भी कवितायेँ लिख सकते हैं .... वे तो एक नंबर के झक्की और पढ़ीस होते हैं .... चल कोई नहीं ..... उसको एफ बी पर मैसेज करूंगी और उसकी मधुशाला का राज पूछूंगी ...” कह कर पारु खिलखिलाई।
शयामल बोली – “अच्छा है रे ! तेरी बोरिंग लाइफ में नया टूईस्ट आ गया ...”
और दोनों सहेलियां काफी देर तक बात करते करते हंसती रहीं।
सन्डे की खूबसूरत सुबह जिसका पारु बेसब्री से इन्तेजार कर रही थी .... ‘आज तो पक्का अनिमेष को मैसेज करना है’ ... तीन दिनों में वह उसका ब्लॉग पढ़ चुकी थी ... ‘सच बहुत पढ़ीस है ... सोशल इश्यूस पर अच्छे अर्टिकल लिखता है .... अगर पहचान हो जाती है तो करेंट अफेयर्स अच्छे तैयार हो जायेंगे ... कम से कम अच्छे लोगों से कोनटेक्ट कुछ अच्छा सीखने को ही देता है ....’  सोचते सोचते उसने फेसबुक पर अनिमेष को मैसेज लिखना शुरू किया .....
“हेलो !
मैं पारु .... आपका ब्लॉग देखा ... काफी अच्छा लिखते हैं आप। आपकी ‘मधुशाला’ भी बहुत सुन्दर तरीके से लिखी गयी है .... लेकिन आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ .... ये ... आप मेल्स मधुशाला पर ही सबसे ज्यादा लिखना क्यों पसंद करते हैं ?
“कभी ख़ुशी में पीना ,
तो कभी गम में पीना ,
तो कभी यूं ही पीना ,
यह पीने और डूबने का क्रम कब तक .....!!”
रिगार्ड्स – पारु
मैसेज करने के बाद उसके दिल की धड़कनें तेज हो गयी थीं ... पता नहीं पढीस क्या जवाब देगा .... कहीं गलियां ही न देने लगे .....।
एक दिन बाद उसने मैसेज चेक किया ‘नो रिप्लाय’ ... वह समझ गयी .... शायद उसकी बात अनिमेष को बुरी लग गयी है। बात आई गयी हो गयी। वक्त बीतने लगा।
कुछ दिन बाद पारू ने फिर अपना एफ बी अकाउंट खोला ....मैसेज ब्लिंक कर रहा था ....
‘अनिमेष’
अनिमेष का मैसेज ... कांपते हाथों से उसने मैसेज क्लिक किया .....
“ थैंक्स पारु .....
तुम्हारा मैसेज देखकर अच्छा लगा .... वैसे जहाँ तक मेरी मधुशाला का सवाल है , मेरी और बच्चन जी की कोई तुलना ही नहीं है .... “कभी ख़ुशी में पीना ...........” ये ख़ुशी तो सिर्फ पीने वाला ही जाने .... कभी ‘हाला’ में डूब के देखो ... तुम भी मधुशाला पर लिखना शुरू कर दोगी......”
अनिमेष का जवाब देख पारु मुस्करायी .... ‘बंदा ये बिंदास है .... अच्छी पटेगी’
“नो वे .... मैं ये काम कभी नहीं कर सकती ‘पीना’ आप लोगों को ही मुबारक...”
तुरंत जवाब आया – शायद वह ऑनलाइन था ....
“हा हा हा .... मैं भी नहीं पीता .... हाला पीने वाले लोग अलग होते हैं ..... लेकिन मैंने लिखा जरूर है ....
क्या करती हो ?”
“पढ़ाई”
“किस स्टेंडर्ड में हो “
“हे हे हे ... मैं स्टेंडर्ड पार कर चुकी हूँ ... पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हूँ ...”
“और आप”
“बंगलौर में जॉब कर रहा था ...अभी दिल्ली में हूँ .... सिविल की तैयारी कर रहा हूँ ...”
“मुखर्जी नगर ?”
“ह्म्म्म ... गुड ... जानती हो ... यही सिविल ऐस्पयरेंट की तीर्थ स्थली है ... बेस्ट प्लेस फॉर स्टुडेंट्स .....”
“हम्म्म्म” 
बढ़ते वक्त के साथ पारु और अनिमेष के बीच बातों का सिलसिला पुरजोर पर था। चैटिंग से बातें फोन पर ‘शिफ्ट’ हो चली थीं। अनिमेष कब ‘अनी’ बन गया पता ही नहीं चला। पढ़ते – पढ़ते अनी को कॉल कर देना , रोज की बात हो गयी थी ... अन्न्नी .... अलनीनो इफेक्ट बताओ ना .... , क्या बात है ... आजकल असांजे का बड़ा सपोर्ट किया जा रहा है ....उसको नोबेल अवार्ड दिलाने का इरादा है क्या ? ....
अनी पारू से कहता – “तू पागल है , हर समय बक बक करती है ... कभी तो सीधी बात किया कर ...”
“हाँ ...तुमसे अच्छी हूँ.... तुमने तो चुप रहने में पी एच डी कर रखा है .... एक नंबर के अड़ियल टट्टू हो .... जरा जरा सी बात पर नाराज ....”
“यार समझाकर ! तेरी तरह ज्यादा बकबक करूँगा तो पढ़ नहीं पाउँगा .... मुझे इस बार सेलेक्ट होना है ...|”
“ ओके बाबा ...पढ़ ले पढ़ीस .... अब परेशान नहीं करूंगी ...।”
पारु ने २-३ दिन अनी को फोन नहीं किया। चौथे दिन अनी का फोन उसके पास आया –
“क्यों मिस बकबक – कॉल क्यों नहीं किया तूने”
“तुम्हें पढ़ना था इसलिए कॉल कर के तुम्हें परेशान नहीं किया”
“इट्स ओके यार – थोड़ा परेशान कर सकती हो” – हँसते हुए वह बोला।
“ओक्क्के ,,, अब तैयार रहो मुझे झेलने के लिए ...” कहकर पारू ने ठहाका लगाया।
“ऐ पारू तेरे बैक ग्राउंड से ये आवाजें कैसी आ रही हैं ...?”
“मेरी बर्ड्स हैं ...”
“ओह !”
“पता है अनी ... मेरी बर्ड्स मुझसे बातें करती हैं ....”
“पागल है क्या .... ऐसा भी कहीं होता है क्या ...!”
“जी हाँ ...! ऐसा भी होता है ....१ मिनट होल्ड कर अभी उनकी बातें सुनवाती हूँ ....” कह के पारु भागती हुयी चिड़ियों के पिंजरे के पास गयी और उनको पुचकारने लगी। चिड़ियाँ तेज तेज ची – ची की आवाज करने लगीं। फोन पर अनी सब सुन रहा था। पारू ने इठलाते हुए उससे कहा – “विश्वास आया ... मेरी बर्ड्स मुझसे बातें करती हैं ...|”
अनी हंसा ... “तुम और तुम्हारी बर्ड्स ... सच तुम बहुत अजीब लड़की हो ... छोटी वाली नहीं .... बड़ी वाली पागल ....”
श्यामल पारू से कह रही थी .... “पारू आजकल कहाँ विजी रहती हो ...तुम्हारे पास तो समय ही नहीं होता मेरे लिए ...”“कुछ नहीं यार ! मीरा के दिवोसन पर कविता लिखना चाहती हूँ .... दी ने कहा था – चरित्र में डूब जाओ ... समझ नहीं पा रही की क्या करूँ ...मीरा से भाव लाना आसान है क्या .... वह प्यार और समर्पण खुद के अन्दर हो ...तभी तो कविता में आएगा ... इसी उधेड़बुन में उलझी हूँ ...”
“तू अनिमेष से क्यों नहीं पूछती .... वो भी तो बहुत अच्छा लिखता है ...|”हाँ ! लेकिन वह पढ़ाई कर रहा है। कभी कभी कुछ लिखता है। अभी हाल ही में ख़ामोशी पर कुछ लिखा था। अजीब अड़ियल टट्टू है ... जरा जरा सी बातों पर नाराज हो जाता है ... भागवत गीता पढ़ता है ... सेक्सुअल या अजीबोगरीब बातें तो कभी उसकी जुबान से सुनी ही नहीं , मेल फीमेल के बीच की मर्यादा ,वह बहुत अच्छे से निभाना जानता है। सुबह ६ बजे उठना तो रात ११ बजे तक सो जाना .... दिनभर सिड्यूल के हिसाब से काम और पढ़ाई ... एक –एक बात ...सेट .... बिलकुल करीने से ...| पहला लड़का देखा – जो संस्कारों ,आदर्शों ,और परम्पराओं की बात करता है। वरना लड़के तो इन सब चीजों से कोसों दूर रहते हैं और वो ... सच ... बहुत अलग है ... उसका ठहराव .... पता नहीं क्यों ...मुझे बहुत सिक्योर फील देता है। तुझे तो पता ही है मैं लड़कों से दो गज दूर रहना पसंद करती हूँ ,लेकिन अनी के साथ कभी ऐसा महसूस ही नहीं हुआ ... की मेरी दोस्ती किसी लड़के से है ...|”
“ओये पारू ! सब ठीक है ना ...”
“धत पागल ! वो १०० परसेंट लड़का है ....ओक्क्के .... ज्यादा दिमाग की बत्ती मत जला ...|” खाली क्लास रूम में दोनों की हंसी की आवाज गूंज गयी।
पारु के घर में घुसते ही, दीदी ने आवाज दी –“ पारू ! आज तू अपना फोन घर में ही भूल गयी थी। अनिमेष का कॉल आया था। उससे बात कर लियो ..”
“ओके दी .. कर लूंगी “
फ्रेश होने के बाद पारू चाय का कप ले छत पर चली गयी। ढलता सूरज सिंदूरी रंग के साथ मनभावन लग रहा था। तभी उसे याद आया ... अनी को कॉल करना है .... उसने झट अनी का नंबर डायल किया – “ ऐ अनी ! क्या हुआ ? कॉल क्यों किया था ?”
“यार आज अपने फ्रेंड की मैरिज पार्टी में जा रहा हूँ ... रात कॉल मत करना ...|”
“क्यों भला ? ऐसा क्या है ..?” पारू ने मजाक में कहा।
“कुछ नहीं ... शायद दारू का प्रोग्राम हो ... ऐसे में तुमसे बात नहीं कर पाउँगा।”
“दारु ! .... तुम भी शुरू हो गए ..”
“ना रे ! ऐसा नहीं है ... मे बी .... पॉसिबिल..”
“ओके ! बट ... बात क्यों नहीं कर पाओगे ?”
“ज्यादा सवाल मत किया करो ... जो कह रहा हूँ सुनो , ना तो ना ...।”
“ओके ! अड़ियल टट्टू ! गुस्सा मत खा ... नहीं करुँगी ... वैसे भी तुम्हें रात में कोई कॉल नहीं करने वाली थी ...| अच्छा ये बताओ ... क्या खा रहे हो ?”
“संड्विच”
“मुझे भी खाना है ..”
“ले तेरे हिस्से की बाईट भी खा ली ...अब ठीक ...”
“हाँ”
और दोनों हंसने लगे। पारू फिर बोली –
“अनी कुछ सुनाती हूँ तुम्हें .... सुनो .... फिर वैसी ही / सिंदूरी शाम है / वही हवा में ठंडक / और / फिजाओं में गूंजती / तुम्हारी आवाज / कहीं तुम्हारे / आने का इशारा तो नहीं .....”
“ओये कुड़िये ! तू तो रोमांटिक सोमंटिक हो रही है ... क्या बात ...कोई मिल गया है ...” अनी ने पारू से चुटकी लेते हुए बोला।
“ना रे ! ... मेरे हिटलर पापा को देखा है .... उन्हें देखते ही प्यार का भूत हवा हो जाता है ...ये तो बस युहीं .... मौसम सुहाना है ना ... इसलिए ..| ओये अनी ! पपीहा बोल रहा है ... २-४ दिन में बारिश होगी।” पारू बोली।
“वाट रविश ! पपीहा और बारिश में क्या सम्बन्ध ..” अनी बोला।
“सच कह रही हूँ अनी ! बचपन से देख रही हूँ ,जब जब पपीहा बोलता है बारिश होती है ....शर्त लगा लो ....”
“ओके डन ...! अगर बारिश हो गयी तो जो तुम कहोगी मैं करूंगा और अगर नहीं हुयी तो मेरी बात तुम्हें माननी पड़ेगी ....|”
“पक्का – पक्का ...”
“अच्छा फोन रखता हूँ , जाने की तैयारी करनी है।”
“हे हे हे .... लड़की है क्या .... ऐसे बोल रहा है जैसे लहंगा पहनना हो और चूड़ियों का अरेंज करना हो।”
अनी को गुस्सा आ गया – “पागल”
और फोन कट गया।
३ दिन बीत गए थे। चौथे दिन पानी बरसने लगा। ये पपीहे का कारनामा था या फिर कुछ और ... लेकिन पारू शर्त जीत गयी थी। उसने अनी को फोन किया –
“अड़ियल टट्टू ! तेरी दिल्ली में पानी बरस रहा है और मेरे इलाहाबाद में भी ... अब बोलो क्या मांगूं तुमसे।”
अनी चुप था ... कोई जवाब नहीं था उसके पास। पहली बार पारु ने अनी के भीतर की ख़ामोशी महसूस की थी।
“ऐ अनी ! क्या हुआ ? तुम ठीक हो ना ....”
“हम्म्म्म”
“परेशान लग रहे हो ?”
“कहा ना नहीं” ... अनी की आवाज में तल्खी थी।
“हद है यार ! चल जाने दो ... तुम्हारा मूड ठीक हो जाये तब बात करती हूँ ...” कह कर उसने फोन काट दिया।
आजकल अनी ब्लॉग पर ज्यादा लिख रहा था। कुछ बदला सा अहसास .... काजल ....यादें .... और ना जाने क्या –क्या। पारु को ये सब बहुत अलग सा महसूस हो रहा था .... कुछ तो है ...अनी बदल रहा है ...चुप रहना .... बात बात में गुस्सा करना ...| पारु ने सोच लिया था की उसको कारण का पता लगाना ही होगा ...पर कैसे ... अनी इतनी आसानी से तो बताने वाला नहीं।
उसने अनी को फोन किया – “ अनी ! दीदी कहती है ,लिखने के लिए चरित्र से जुड़ना जरूरी है ,उसमे डूबना जरूरी है ... क्या तुम भी डूबते हो ? या फिर सच में कोई काजल वाली है ..तुम्हारी जिन्दगी में ..”
“पारू ! मैं कुछ नहीं सोचता ... बस पढ़ते पढ़ते बोर हो जाता हूँ तो यूँ ही लिख देता हूँ ... और कोई काजल वाली मेरी जिन्दगी में नहीं है। आगे से ऐसी कोई बात मत बोलना ... आई डोंट लाईक सैंटी डायलोगस ...” कहते हुए अनिमेष के स्वर कड़े हो गए थे।
“सॉरी ... वो तो मैंने यूँ ही पूछ लिया था। आज मैंने दिवोसन पर कुछ लिखा है ... मेरा ब्लॉग देख कर बताना कैसा है।” पारू बोली।
“सॉरी पारू ! मेरे पास समय नहीं है। एक्साम्स सर पर हैं और मैं इन सब से दूर रहना चाहता हूँ .... फ्रेंकली स्पीकिंग ... तुमसे भी .... अब मुझे तुम ज्यादा कॉल मत किया करो ... खुद भी पढ़ो और मुझे भी पढ़ने दो ...” कहते हुए अनी ने फोन काट दिया।
अनिमेष का ऐसा व्यवहार पारू ने पहली बार देखा था , वह सुन्न पड़ गयी ... सबकुछ समझ से परे था .... क्या हो गया है अनी को , वह क्यों ऐसे विहेव कर रहा है ... सोचते सोचते उसकी आँखों से मोती झर झर गिरने लगे।
रात तकिया भिगोते भिगोते बीत गयी थी। अनी को गुड मोर्निंग कहने के लिए भी वह हिम्मत नहीं जुटा पाई। आज क्लास में भी मन नहीं लग रहा था उसका। श्यामल उसके मुरझाये चेहरे को गौर से देख रही थी। ब्रेक टाइम में उसने पारू से पूछ ही लिया – “क्या हुआ पारू ! परेशान दिख रही है ...” श्यामल के शब्द सुनते ही पारू की आँखों से अनजाने ही आंसू की धरा बह चली। वह बोली – “ पता नहीं श्यामल ... अनी को क्या हो गया है ... ठीक से बात ही नहीं कर रहा। अवोइड कर रहा है मुझे।... कुछ पूछो तो बताता भी नहीं .. ऐसे भी कहीं दोस्त होते हैं भला। कल उसने साफ साफ मुझसे कह दिया की मैं उसे कॉल ना करूँ ... अब बताओ ... मैं क्या करूँ ? ... क्या समझूं ? एक समय अनी को मेरी बातें बहुत अच्छी लगती थीं ... कहता था – तुम अलग हो इसलिए तुमसे बात करता हूँ ... वरना मैं लड़कियों से दूर रहना ही पसंद करता हूँ ....| अब कहता है – तुम्हारी बकबक मुझे पढ़ने नहीं देती ... तुम्हारी बातें मेरे कानों में गूंजती रहती हैं। ऐसा भी कहीं होता है भला ...” कहते कहते पारू फिर रोने लगी।
श्यामल बोली – “चुप हो जा पारू। कहो तो मैं उससे बात करूँ ?”
“ना रे ! तुम उससे बात करोगी तो वह और नाराज हो जायेगा ... कहेगा उसकी बातें दुनिया भर को बोलती हूँ । थोड़े दिन उससे दूर रहूंगी ,शायद सब ठीक हो जाये।” कहते हुए पारू ने आंसू पोंछे।
दिन बीत रहे थे , अनी का कोई मैसेज , कोई कॉल पारू के पास नहीं आया था। ये पारू के लिए पहली बार था , जब ऐसा कुछ घट रहा था। एक दिन पारू को अनी के ब्लॉग पर एक कविता नजर आई – ‘दर्द तुझे भी होता होगा.....’ पारू पढ़ते ही बौखला गयी। उसे ऐसा लगा मानो उसकी इतने दिनों की तकलीफ अनी को पता चल गयी थी। कविता की एक एक पंक्तियाँ पारू के दर्द को रेखांकित कर रही थीं। पारु उधेड़बुन में थी। उसकी तो अनिमेष से बात भी नहीं हुयी ,फिर उसे कैसे पता चला उसके हाल के बारे में ... आज ही कॉल करके पूछती हूँ ... पारू के दिमागी घोड़े दौड़ रहे थे। उसे शाम का इन्तेजार भी , मीलों लम्बे सफ़र सा लग रहा था।
शाम होते ही उसने अनी को कॉल किया – “कैसे हो अनी ?” पारू की आवाज में दर्द था। “ठीक हूँ” सहजता से अनिमेष ने जवाब दिया।
दोनों ओर एक चुप सी ख़ामोशी थी ... वो बकबक न जाने कहाँ गुम हो गयी थी।
“तुम्हारी कविता पढ़ी थी” ... पारू ने बात आगे बढ़ाई।
“अच्छा”
अनी के दो टूक जवाब पारू को भीतर तक झिंझोर रहे थे। फिर भी संयम के साथ वह बात आगे बढ़ाना चाहती थी।
“अच्छा लिखा है ...”
“थैंक्स”
इतना फोर्मल ... अनी पहले तो कभी ना था , पहचान के दिन भी नहीं। उसकी इच्छा हुयी फूट फूट के रो दे ... लेकिन वह रो भी नहीं सकती थी क्योकि अनी को आंसू पसंद नहीं थे। उसने खुद को सँभालते हुए बोला – “अनी तेरा बर्थडे आ रहा है ... क्या गिफ्ट दूँ ?” पारू ने वातावरण हल्का करने की कोशिश की।
“कुछ भी यार ... सब चलेगा ...” अनी हंसा ... “ मैं तो सिर्फ गिफ्ट के पीछे छिपी भावना देखता हूँ ... जो तुम्हें पसंद हो ,भेज देना।”
पारू की जान में जान आई .... चलो बात कुछ तो आगे बढ़ी ....
“ओक्क्के .... और क्या चल रहा है अनी ? आजकल बहुत व्यस्त रहते हो , कॉल भी नहीं करते ..” पारू के स्वर में मायूसी थी।
“असल में एक्साम्स सर पर हैं इसलिए पढ़ाई पर कंसंट्रेट कर रहा हूँ ... वैसे भी बातों में क्या रखा है ..” उसकी यह बात पारू को हथोड़े सी लगी ....
“मतलब ?” पारू बोली।
“कुछ नहीं .... तुम नहीं समझोगी मिस बकबक ! मेरी दोस्ती की परिभाषा अलग है। मेरे कई पक्के दोस्त हैं , जिनसे महीनों बीत जाते हैं ...मैं बात नहीं कर पाता , फिर भी ऐसा रिश्ता है ... खून उनको निकलता है और दर्द मुझे होता है। मेरे लिए ऐसे ही रिश्ते मायने रखते हैं। कोई भी रिश्ता समय मांगता है। बिना किसी इफ एंड बट के जो रिश्ता होता है वही जीवन भर टिकता है ..|”
“जनाब ! मेरे रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं ... एक बार जो रिश्ता जोड़ती हूँ , आखिरी साँस तक निभाती हूँ ... चाहे तो आजमा लेना ...|”
“अच्छा ! ऐसी बात है ... तो जो मैं कहूँ – मानोगी ?”
“कह के देखो ...”
“आज से मेरे सेलेक्सन तक मुझसे बात मत करना ... कोई भी कोन्टेक्ट नहीं... हाँ ... बर्थडे विश की छूट है ..|” कह कर अनी मुस्कराया।
“अनी ये कैसी शर्त है .... मुझे अपने रिश्ते को प्रूव करना पड़ेगा क्या ...?” पारू की आवाज भारी हो चली थी।
“मैं तो बस कह रहा हूँ .... मानना ना मानना तुम्हारे ऊपर ... खूब मन लगा के पढ़ाई करो ... ये कहानी , कविताओं के पात्रों को जीना छोड़ दो ... ये सपने से ज्यादा कुछ नहीं ...|”
“आई नो अनी ! बट बिना लिखे मन नहीं मानता ... चलो तुम कह रहे हो तो कोशिश करुँगी ... तुम्हारे सेलेक्सन तक तुमसे कोन्टेक्ट भी नहीं करुँगी ... अब से तुम्हारे सेलेक्ट होने का इन्तेजार होगा ... जल्दी सेलेक्ट हो जिससे हमारी बकबक फिर शुरू हो पाए ..|” ना चाहते हुए भी पारू ने मुस्कराने की कोशिश की।
बाय के साथ फोन कट चुका था। लेकिन पारू का मन भारी हो गया था ... कैसे होगा ये सब ... अनी से बात किये बिना २ दिन कटते नहीं ...साल कैसे कटेगा .. लेकिन वादा किया है तो निभाना भी है ... देखा जायेगा ... चलो अभी तो अनी के गिफ्ट के लिए सोचा जाये ... उसके जैसे लड़के के लिए क्या ख़रीदे ... ये भी अजब सवाल था ...| बड़ी मशक्कत के बाद पारू ने अनी के लिए एक बच्चन जी की मधुशाला खरीदी। गिफ्ट भेजने के साथ वह अपनी बकबक भी साथ ही भेज रही थी। एक डगमगाया अहसास था ... कुछ है जो ठीक नहीं है।
आज अनी का जन्मदिन था। वह उलझन में थी ..फोन करे या ना करे। उसकी परेशानी चेहरे पर साफ नजर आ रही थी ... बार बार मोबाइल उठाना ...फिर बिस्तर पर पटक देना ... इसी बीच मोबाइल बजा ....
‘अनीSSSS’
‘अनी का कॉल ’ उसके चेहरे पर मुस्कान थिरक गयी। उसको देख ऐसा लग रहा था मानो पानी से बाहर गिरी मछली को फिर से पानी में डाल ... जीवनदान दे दिया गया हो।
“हैप्पी बर्थडे अनी !”
“थैंक्स पारू ! तुम्हारा गिफ्ट बहुत प्यारा है। मधुशाला से बेहतर कोई और गिफ्ट हो ही नहीं सकता था क्योंकि हमारे सफर की शुरुआत मधुशाला से ही तो हुयी थी ..| तुम सच में मुझे समझती हो । आज भरतपुर जा रहा हूँ ... जन्मदिन घर पर ही मनाऊंगा ... २ दिन बाद दिल्ली लौट आऊंगा ... मेरे फ़ाइनल एक्साम्स के बाद हम बात करते हैं .... वन्स अगेन थैंक्स अलोट ..”
पारू सिर्फ अनिमेष को सुनती रही ... उसके शब्द कहीं अनिमेष में ही खो गए थे ...बस एक चुभन महसूस हो रही थी ... कुछ तो है जो सही नहीं है।
बढ़ते समय के क्रम में जिन्दगी चलने लगी थी लेकिन पारू की बातों ने ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली थी। श्यामल आज पारू के घर आई थी – “चल पारू आज चाय छत पर पीते हैं ..” श्यामल बोली।
दोनों छत की ओर चली गयीं।
फिर वही सिंदूरी शाम थी ...आसमान को निहारते – निहारते अचानक पारू श्यामल से बोली –
“श्यामल पता नहीं मुझे क्या हो गया है ... अनी के जाने के बाद से कुछ बोलने की इच्छा नहीं होती ... बर्ड्स से भी बात नहीं कर पाती ..और मालूम है आज मैं जो भी लिखती हूँ ...जिस नायिका को जीती हूँ ... अपने आप उसका नायक अनिमेष हो जाता है। हर लेखन के शुरू होने से लेकर अंत होने तक एक दर्द भोगती हूँ ... और चाहकर भी नायक – नायिका का मिलन नहीं करा पाती क्योंकि नायक का चेहरा अनी में बदल जाता है। जो मेरा है ही नहीं उससे मिलना कैसे संभव हो सकता है। मैं समझ नहीं पा रही, कैसा बंधन बंध गया है। इस तरह से तो जिया ना जायेगा ... मुझे लिखना छोड़ना होगा ... हर दिन की मौत अब झेली नहीं जाती। अनी तो मेरा अच्छा दोस्त था लेकिन ये दर्द का कारण मैं नहीं समझ पा रही।”
“जाने दे पारू ! ज्यादा दिमाग मत लगा , सब टाइम पर छोड़ दे ... वक्त हर सवाल का जवाब देता है।”
“हाँ श्यामल तुम ठीक कह रही हो ... वक्त ही मेरे सवालों का जवाब देगा...|”
देखते देखते एक साल बीत चुका था। पारू के लिए अनिमेष के सारे दरवाजे बंद थे। न फोन कॉल , ना एफ बी , न कोई मेल , कोई भी जरिया नहीं जिससे वह अनिमेष के बारे में जान सके ... सिवाए अनिमेष के ब्लॉग के ... जिस पर उसने लगभग लिखना बंद कर दिया था।
एक दिन अचानक पारू को अनिमेष का एक मेल स्पैम में नजर आया। उस पल पारू की अजीब स्थिति थी ... बिना अनी के कोई आस भी ना रह गयी थी और इतना तरस गयी थी निगाहें की प्यास भी महसूस ना कर पा रही थी .... उसने मेल पढ़ना शुरू किया –
“ हे पारु ,
कैसी हो ?
तुमसे दूर जाने के बाद ... तुम्हारे न होने की कमी समझ पाया ...हर दिन सुबह होती थी लेकिन ‘गुड मोर्निंग’ नहीं ... और जब फोन पर पसरा सन्नाटा देखता था ...तो दिल दिमाग में हलचल होती थी .... तुम्हारी आवाज ... तुम्हारी बकबक , मुझे चारों ओर से घेरने लगती थी। कहीं बाहर जाता था तो लगता था ,तुम कह रही हो ... अनी ! ... पानी की बोतल रखी ? अपना टिकट रखना तो नहीं भूले ? ... रास्ते में कुछ खा जरूर लेना ....। मेरे दिमाग की नसें चटकने लगती थीं और मैं तुम्हारी बातों को रास्ता बनाकर ... उसी पर चलने लगता था । पारु ! जिस दिन मैंने तुम्हें चिड़ियों से बतियाते सुना था ... उसी दिन , तुम मेरी आत्मा में समा गयी थीं .... कोई लड़की इतनी मासूम और निश्छल हो सकती है , यह मेरी सोच से परे था। तुमसे लगाव महसूस करने लगा था। याद है तुम्हें वह मैरिज पार्टी ... जब मैंने तुम्हें कॉल ना करने को कहा था ... उसका कारण था ... मुझे लग रहा था कहीं मैं दारु के नशे में तुम्हें अपनी दिल की बात न बोल दूँ। तुम कहती थी ना लेखन के समय चरित्र में डूब जाना चाहिए ... मैं भी डूब रहा था ... ‘तुममें’.... बस खुद को समझ नहीं पा रहा था। इसी कारण मेरे शब्द तुम्हें नया अहसास दे रहे थे। तुम्हारा दर्द मुझे दर्द देता था .... आज भी मेरी सोच में , मेरे शब्दों में , सिर्फ तुम हो .... तुम से ही दिन है और तुम्हीं से रात ... जितनी बार भी तुम्हारी दी हुयी मधुशाला देखता हूँ ... तुम्हारी हंसी और तुम्हारी बकबक मेरी नींदें चुरा लेती है। हाय रे ! तेरा काजल ... बहुत याद आता है। आज मैं सिविल सर्वेंट जरूर हो गया ...लेकिन आई ए एस होने के बाद ही मुझे समझ आया की दुनिया की कितनी भी ऊँची जगह को क्यों ना पा लूँ ... लेकिन तुम्हारे साथ के बिना कुछ नहीं हूँ। मुझे मेरी पारु चाहिए ... वही बकबकी पारू ... जिसकी बकबक मेरे पास ही रह गयी। हमें फिर से मिलना होगा पारू ... हमें फिर से मिलना होगा .... लव यू .... यही सच अब मैं जान पाया .... की तुमसे प्यार हो गया है और तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूँ .... वापस आ जाओ ... मेरी दुनिया में। मैं तुम्हें लेने आ रहा हूँ।
तुम्हारा अनी ...........”
मेल पढ़ कर पारू स्तब्ध थी .... वक्त ने सारे सवालों के जवाब दे दिए थे। वह दर्द .... सिर्फ ... उसका ही नहीं था अनी का भी था। एक लम्बे अंतराल के बाद अहसासों को मक़ाम मिल गया था ... अधूरा – अनकहा रिश्ता बदल रहा था ... दोस्ती में प्यार की महक आने लगी थी ..... ‘मधुशाला’ से ‘मधुशाला’ तक का सफर ... जीवन भर का सफर बन चुका था
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 प्रियंका राठौर