Monday, January 30, 2012

तुम्हारा आना ....



नहीं चाहती थी
तुम आओ
और फिर से
बेचैनी दे जाओ -
इसलिए -
दिल के दरवाजे पर
बड़ा सा ताला
जड़ दिया .....
खुश थी
वक्त के साथ
खिची लकीरें
स्वतः धूमिल हो जाएँगी
लेकिन -
ये क्या .....
फिर वही बेचैनी
फिर वही उलझन
मै गलत थी .....
तुम्हारे आने के लिए
दरवाजे की तो
जरूरत ही नहीं
तुम तो स्वतः स्फुरित
अहसास हो
जो सुगंध की तरह
रूह में उतर
बेचैन कर जाता है .....
कभी किसी के दर्द
को छुआ
या देखा कभी
किसी घटना को
या कभी
महसूस किया किसी की
खुशियों को
उस पल -
तुम खुद व खुद
समक्ष खड़े नजर आते हो
दूर जाऊ तो उससे
जो प्रत्यक्ष हो
भिग्य हो
पर तुमसे दूर जाऊ कैसे
तुम तो वह अहसास हो
जिसके आने जाने का
कोई पल नहीं ...
जिसके आने जाने का
कोई क्रम नहीं .......



प्रियंका राठौर

Tuesday, January 24, 2012

हाशिये का 'मै '......







मै ......, ना -ना  नाम नहीं बताना चाहता 
वर्ना - जाति , धर्म , संप्रदाय में बाँट दिया जाऊंगा ..
पढना चाहता हूँ  , आगे बढ़ना चाहता हूँ ..
जिससे अपने देश - समाज के लिए कुछ सार्थक कर सकूँ 
लेकिन - पढ़ ना पाने की मजबूरियां हैं 
आर्थिक - सामाजिक बेड़ियाँ हैं 
जिससे हाशिये का मै  
हाशिये तक ही सीमित रह जाता हूँ ....
सुना है -
आजकल आरक्षण का जिन्न ,
बोतल से बाहर आ गया है ...
क्या  मेरी योग्यता और लगन को 
ये दानव निगल ना लेगा ...
और -
अदना सा मै -
हाशिये की रेखा पार ही ना कर पाऊंगा......
मेरे कई जानने वाले 
इस जिन्न की रेखा में समाते हैं ...
लेकिन - फिर भी 
वे मेरे साथ ही रह जाते हैं ...
ऊचाईयों को छू पाना तो स्वप्न सा ही है .....
इस तकलीफ का फंदा 
मेरा गला कस रहा है 
जिस कारण -
मेरी जुबान को भी शब्दों के पंख लगने लगे हैं ...
कहना चाहता हूँ उस सियासत से ...
उस तबके से ...
जो शान से घोषणाओं का बिगुल बजाते हैं 
और हमारे लिए मुश्किलें पैदा कर जाते हैं ....
एक बार सोच के देखो -
स्वार्थपरता से बाहर निकल कर देखो -
मेरे जैसे लोग ...
जहाँ हैं ...
वहीं खड़े हैं , और आगे भी वहीँ खड़े नजर आयेंगें 
अगर -
यथार्थ में हमारे लिए कुछ करने का जज्बा है 
तो .... टुकड़ों में बाटने का हथियार हम पर मत चलाओ ...
योग्यता को मापदंड बनाओ ...
'आधार ' और  'जनसँख्या  रजिस्टर ' से 
हमारी आर्थिक पहचान बताओ .....
 योग्यता सूची में नाम आने के बाद भी  
जब हम फीस देने में सक्षम ना हों 
तब आगे बढकर कम लगत की शिक्षा दिलवाओ ....
दफ्तरों में भी योग्यता को आधार बनाओ ...
साथ ही - कुछ और भी  अनछुई सी समस्याएं हैं 
जिनके कारणों पर चिंतन कर समाधान करवाओ .....
कहते हैं -
बूँद - बूँद से घट भरता है 
ईमानदार पहल कर के देखो ......
हमारे जैसे हाशिये के लोगों को  आरक्षण की जरूरत नहीं .
हमारा स्तर खुद व खुद सुधर जायेगा ..
साथ ही -हम अपने नाम से मुख्य धरा के साथ जी पायेंगें ......!!!!!!!!



प्रियंका राठौर 




Sunday, January 15, 2012

मै बहुत खुश हूँ ....





एक मौन .....
घेरे हुए है 
चारों ओर से 
निकलना चाहती हूँ 
फिर भी 
नहीं निकलती 
क्योकि -
इस मौन में 
तुम्हारा वजूद 
हर ओर से 
मुझे आवरण देता है 
बचाता है 
दुनिया के प्रपंच से ,
झूठे , वाचाल ,
प्रलोभनों से 
जो सिर्फ भोगना 
जानते हैं .....
कहते हैं ....
नियति चक्र  नहीं रुकता 
एक जाता है 
तो 
दूसरा आता है ...
लेकिन -
तुम जाओगे 
तभी तो कोई आएगा 
तुम तो कभी 
गए  ही नहीं ....
सुबह तुमसे होती है ,
दिन तुमसे ढलता है ,
साथ तुम्हारे ही चलती हूँ ,
साथ तुम्हारे ही जीती हूँ ,
दिन भर की  उधेड़बुन का 
हर हाल - रात में 
बिस्तर पर करवटें 
बदलते वक्त 
तुमसे ही कहती हूँ ....
और जब जाती हूँ 
घुलने - मिलने 
उस दुनिया से -
तुम्हारा नाम ,
तुम्हारा अहसास ,
और -
तुम्हारा वजूद 
उठाती हूँ ...
खुद में ढालती हूँ
और तुम्हे 
कवच की ओढ़े 
दायित्व पूरे कर 
आती हूँ ......
कोई गंदगी ,
कोई अहसास ,
मुझे छू  भी नहीं पाता है ....
शुची सी मै
गर्व से मदमाती 
और ज्यादा
 रोशन  नजर आती हूँ ......
अब तो तुम हो 
मै हूँ ...
और ये मौन ...
हम दोनों के 
एकत्व का साक्षी ....


मै बहुत खुश हूँ ....
क्योकि -
अब हम  'एक' हैं ........................!!!!!!!






प्रियंका राठौर 

Monday, January 9, 2012

विनती....






विनती .......  समर्पित थी ...... 'मेरे लिए '..... घर  से बिस्तर तक का समर्पण ...... हर हाल में ..... जीवन से मरण  तक ...... प्यार था ना ......लेकिन - कमबख्त  आखिरी पलों में साथ छोड़ गयी ..... जाते वक्त  कह गयी - "   बहुत प्यार करती हूँ आपसे .... लेकिन फिर भी जा रही हूँ .....मै खाना बनाती  थी  और खिलाती थी ....तो आप कहते थे  तुमसे अच्छी और सस्ती नौकरानी मिल जाएगी .... जब प्यार करती थी  तब  कहते  थे , तुम्हारे जैसी तो ५०० -५०० रूपये में मिलती हैं .... और जब पूरी तरह समर्पित हो जाती थी ...तो कहते थे - इससे  अच्छा तो मै माँ  की पसंद की लड़की से शादी कर लूँ .... दहेज़ के साथ साथ  काम वाली भी मिलेगी .....शायद  आपका प्यार यही होगा ... जो मै ही समझ ना पाई .... लेकिन आप हमेशा मेरी यादों में रहेंगे ....चढ़ती उतरती  सांसों की तरह "   .....!!!!

वह तो चली गई  ... लेकिन मेरे लिए प्रश्न छोड़ गयी ...... रात दिन की तड़प  ...... तकलीफ ..... और एक रिसता सा  दर्द  जो धुओं के छल्लों और नशे के समुन्दर में गोते लगाता हुआ .... पल पल झुलसा रहा है .......मुझे उससे प्यार था की नहीं पता नहीं ..... लेकिन - तब से लेकर आज तक .....हर  लड़की में विनती को ढूँढने का क्रम चालू है ..... किसी की बातें उसके जैसी हैं , तो किसी की आँखें , कोई उसके जैसी जंगली है तो कोई उसके जैसी अर्थहीन ..... लेकिन विनती कहीं नहीं है .....वह तो लीन हो गयी  .... यादों और जिन्दगी में ऐसी घुली की ..... अब तो बस मै हूँ ....वो है ..... और रोज एक नया चेहरा ........ !!!!!!


प्रियंका राठौर