Saturday, November 19, 2011

'मधुशाला '......





हल्की - हल्की
सर्द - सर्द सी
ऐसी ही उस रात -
भटकते - भटकते
देखी थी  वह
'मधुशाला '
ना जाना , ना समझा तब
बस अनुभव की ही
बात हुयी थी .....
'मधुशाला ' से 'मधुशाला ' तक
एक लम्बे सफ़र की
चाह हुयी थी ....

सवाल - जबाब के
मकडजाल में
रिश्तों की उलझन
बन आई थी ...
तुम थे
मै थी
और कुछ
अनकही सी नजदीकियां थी ....
मौन सी -
निशब्द सी ,
बातों में
कोई अहसास उभर के आया था .....

भावों की दस्तक ने
राहें कर दी
जुदा - जुदा .....
जीवन की उधेड़बुन में
बदल गया है
सब कुछ कितना ,
शेष रह गयीं हैं -
बस -
वक्त की जंजीर में जकड़ी
स्तब्ध सी ये नजरें
जो तकती हैं
राह आज भी
'मधुशाला ' से 'मधुशाला ' तक की ...........!!!!!!



प्रियंका राठौर

Monday, November 14, 2011

संघर्ष ...





हर दिन का संघर्ष
खुद का खुद से .....
नोंच नोंच कर
खरोंच खरोंच कर ,
खुद को गढना ,
उस स्थिति में ढालना
जो स्वीकार्य हो
उस ढांचे को
जिसके साथ
जीना है , चलना है .....
लेकिन –
पूरी प्रक्रिया में
रिसते हुए दर्द
और जख्मों को
मुस्कराहट के
मुखौटे में छिपाना
है उससे भी कठिन .....
कभी – कभी
साम्य महसूस होता है –
खुद में और मुक्तिबोध के ‘ब्रह्मराक्षस’ में
योग्यता का चरम ,
अव्यक्त भावनाएं ,
खुद को सांचे में
ढालने का क्रम ,
और उनसे उपजी
कुंठाओं और निराशाओं
का अंबार........
मुक्ति संभव नहीं ........
सिर्फ –
अक्षुण सी
उम्मीद और इन्तजार
ढाँचा बदलेगा
या
खुद ढल जायेंगे
संघर्ष जारी है ,
अनवरत रूप में .................!!!!


प्रियंका राठौर 


Wednesday, November 9, 2011

वह संदूकची ......









ताड़ पर रखी
वह संदूकची
धूल और जालों में सनी
फिर नजर आई ....
ख्यालों में गोते
लगाने के लिए
चाह हुयी उसे खोलने की
वह संदूकची
यादों को खुद में
समेटे वह संदूकची ....
बामुश्किल -
कापतें हाथों से खीच ,
उतार लायी ..
क्या गर्द हटाऊ
या फिर खोल ही दूँ
या फिर युही
सहेज कर रख दूँ
बापस ताड़ पर .....
उधेड़बुन के
इस भंवर में
संदूकची से आती
कुछ आवाजें
सुनाई दी .....
आह !
कौन है -
कैसे हुआ -
ये करुण आवाजें .....
अब तो खोलना ही है
मुक्त तो करना होगा
उनको - जो बंद हैं
बरसों से इसमें .....
धडकनों को थामे
आहिस्ता - आहिस्ता
खुल रही थी
संदूकची -
आह !
ये क्या -
जो कुछ बहुत
करीने से , सहेजकर
रखा था -
आज बिखरा सा था
टुकड़ों में बँटा सा था
गंध और भभक से
भरा हुआ था
उस गंध के दलदल में
कितने जीवन पनप गए थे
अस्तित्व हीन से
रेंगते हुए कीड़े
जो खुद कारण थे
उस गंदगी के
या -
गंदगी में पनपे थे
कह नहीं सकती
सोचा -
दुर्गन्ध हटाऊ
या फेक दूँ ....
सामने खुली पड़ी
वह संदूकची
गंदगी में लिपटी
अजीब सा मंजर था
उस गंदगी और सड़न बीच
निकलते हुए अहसास
मानसिक वेदनाओं का दौर
लेकिन कुछ बेहतर भी
करुण आवाजें -
मुक्त हो गयी थी
दुर्गन्ध खत्म होने लगी थी
और रेंगते हुए कीड़े
खुद व खुद ना जाने कहाँ
गुम हो गए थे -
अंतस अब शांत था
बहते हुए मोती
गर्द हटा चुके थे .....
वह संदूकची
अभी भी थी
अपने बिखरे व
टूटे फूटे सामान के साथ
लेकिन गंदगी
विलीन हो चुकी थी .....................!!!!!!!!



प्रियंका राठौर


 



Tuesday, November 8, 2011

'सुकून'




चली थी ढूँढने
'सुकून' किसी का ......
पर हो गयी
विस्मृत सी ......
कौन है ?
कैसा है ?
है किसका ये नाम ?
जब नहीं जानती 
मै ही
तो क्या पाऊँगी
'सुकून' किसी का ......
विचारों और खोज
के मंथन में
गयी नजर तब
आसमान के रंगों पर ,
वो शांत भाव में
ढलता सूरज ,
वो मंदिर के
घंटों की गूँज ,
चिड़ियों की कलरव संग
बच्चों की किलकारियां ,
मीठी - मीठी हवा की ठंडक ,
कहीं दूर से आती
धुन पर पैरों की थिरकन ,
या फिर -
छत पर पड़े पानी
में युहीं छप - छप करना ,
तो कभी बैठे - बैठे
आसुओं की दो बूँद
टपका देना ......
क्या है ये सब
कैसा ये अहसास है -
तब सोचा ,
महसूस किया ,
खुद का खुद में
डूबने का क्रम
'सुकून' ही तो है
कुछ पल के लिए ही सही
लेकिन -
'सुकून' तो है ........
'सुकून' तो है ........

चली थी ढूँढने ............!!!!!!!!!



प्रियंका राठौर

Sunday, November 6, 2011

दिल ......








डरता है दिल ,
फिर भी आगे ,
बढता है दिल ....
धोखे की चोट से ,
घबराता है दिल ,
पर ना जाने क्यों ,
ऐतबार कर जाता है दिल ....
धीमी धीमी सांसों से ,
चलता है दिल ,
बेचैनी के साथ भी -
आगे बढता है दिल ......


प्रियंका राठौर