हल्की - हल्की
सर्द - सर्द सी
ऐसी ही उस रात -
भटकते - भटकते
देखी थी वह
'मधुशाला '
ना जाना , ना समझा तब
बस अनुभव की ही
बात हुयी थी .....
'मधुशाला ' से 'मधुशाला ' तक
एक लम्बे सफ़र की
चाह हुयी थी ....
सवाल - जबाब के
मकडजाल में
रिश्तों की उलझन
बन आई थी ...
तुम थे
मै थी
और कुछ
अनकही सी नजदीकियां थी ....
मौन सी -
निशब्द सी ,
बातों में
कोई अहसास उभर के आया था .....
भावों की दस्तक ने
राहें कर दी
जुदा - जुदा .....
जीवन की उधेड़बुन में
बदल गया है
सब कुछ कितना ,
शेष रह गयीं हैं -
बस -
वक्त की जंजीर में जकड़ी
स्तब्ध सी ये नजरें
जो तकती हैं
राह आज भी
'मधुशाला ' से 'मधुशाला ' तक की ...........!!!!!!
प्रियंका राठौर