Sunday, October 30, 2011

"गुड मोर्निंग "......






"गुड मोर्निंग "
फिर इन्तेजार .....
प्रति उत्तर
मुस्कराहट के साथ
"गुड मोर्निंग "
पूरे दिन को
एक आयाम मिल जाता है ......
मुस्कराने का ,
खूबसूरती से जीने का ,
भावों में
डूबने उतराने का ,
दिवा स्वप्नों को
बुनने का ,
शाम ढलने का ,
और -
प्यारी सुबह के
इन्तेजार का .........

फिर -
एक नयी सुबह
"गुड मोर्निंग " के साथ
इन्तेजार -
प्रति उत्तर -
मुस्कराहट के साथ
" गुड मोर्निंग "

'गुड ' है ना ..............!!!!!!



प्रियंका राठौर

Thursday, October 27, 2011

कौन हो तुम .....






कौन हो तुम .....
ख्वाब हो
या
हकीकत हो
या
एक परछाई
कौन हो तुम .....
जो रात की चांदनी तले
आँखों की नींदें
चुरा ले जाते हो
और भोर होते ही
सूरज की किरण में
विलीन हो जाते हो .....
कौन हो तुम .....
एक ख्वाब -
अधखुली आँखों के
उलझे से
कुछ सुलझे से
या
स्वाति की बूँद -
जो सागर की
किसी सीपी का
मोती बन
अप्रतिम हो जाते हो .....
कौन हो तुम .....
एक परछाई -
जो हर पल
साथ चलते हो
जब तपन का चक्र
अपने चरम पर
होता है
तब आवरण बन मेरा
मेरी शक्ति हो जाते हो
और ढलते वक्त में
मुझमे ही लीन हो जाते हो .....
कौन हो तुम ....
ख्वाब हो
या
हकीकत हो
या
एक परछाई ......!!!!!



प्रियंका राठौर

Saturday, October 22, 2011

क्या भूलूं...कैसे भूलूं ....










क्या भूलूं
कैसे भूलूं ....
वो ऐतबार की बातें
वो इंतजार की रातें .......
तुम्हारा हक
तुम्हारा डांटना
और फिर
प्यार से
समेटना आंसुओं को .....
क्या भूलूं
कैसे भूलूं ....
स्तब्ध हूँ
ठगी सी हूँ
सोचकर ये
क्यों हैं राहें अब
जुदा - जुदा
साथ था चलना
हमसफ़र था बनना
फिर क्यों
वो अतृप्त सी बातें
वो अनकही सी यादें .....
क्या भूलूं
कैसे भूलूं
वो हमराज सी बातें
वो मीठी सी रातें ....
यादों की धुंध में
गोल - गोल
छल्ले बनती हूँ
कुछ भूले बिसरे
अहसासों में
जब दिखता है
बिम्ब तुम्हारा
रूह की जगह
जिस्म की ओर
जाते हुए
सिहरती हूँ ,
प्रस्तर सी हो
जाती हूँ ....
क्या भूलूं
कैसे भूलूं
वो दर्द भरी बातें
वो आंसुओं की रातें .....
जलती है
अब भी
खुद के अन्दर
मर्यादा की चिंगारी
तप - योग के
वचनों में
आत्मा ही खो
जाती है ...
खामोश हूँ
शून्य हूँ
फिर भी
सतीत्व की कीमत पर
साथ नहीं अब
चल पाती हूँ .....
क्या भूलूं
कैसे भूलूं
वो दावाग्नि सी बातें
वो झुलसती सी रातें .........!!!!!


प्रियंका राठौर

Wednesday, October 12, 2011

उलझन.....






प्रश्न - अर्थ के जाल में
उलझी - उलझी सी है
जिन्दगी -
छटपटाहट निकलने की 
कहीं अधिक उलझा 
देती है -
शायद ,अब ऐसा  प्रस्तर 
बनना होगा , जो 
अडिग रहे  हर उलझन  में 
जो अमिट रहे 
हर भावावेशित दलदल में .............!!!!!





प्रियंका राठौर

Monday, October 3, 2011

अहसासों का पंछी....






अहसासों का पंछी
फड़ फड़ कर उड़ने को व्याकुल ,
इस जीवन की कैद से
मुक्त होने को व्याकुल ....
हुयी प्रात ,
नभ पर फैली लाली
संगियों की कलरव से
ली पवन ने अंगड़ाई
तब निकला सुमधुर - सुमधुर
पत्तों से संगीत
साजों , रागों के संगम से -
अहसासों का पंछी
फड़ फड़ कर उड़ने को व्याकुल
इस जीवन की कैद से
मुक्त होने को व्याकुल ........!!!!!


प्रियंका राठौर