Sunday, August 28, 2011

विदुषी ....





चेहरे पर बोझिल भाव लिए
आँखों से अभिव्यक्त कर
चली आ रही थी नियमित चक्रानुसार .
द्रष्टव्य हुआ राह में एक कोमल गात
उम्र थी मात्र चार माह की , नाम विदुषी
अरुणलालिमय कपोल थे जिसके
पंखुड़ी सद्र्श सचल अंग .
देख के उसको लगता था
है नया लघु रूपांतरण प्रक्रति का .
बोली मुझसे , नयनों ही नयनों में
क्यों हो तुम बुझी - बुझी सी
जीवन तो है चंचलता का नाम
फिर क्यों तुम बनी अचंचला .
देख मुझे निरुत्तर -
खिलखिलाई और बोली -
अंदाज जीने का सीखो मुझसे
हम और तुम राही हैं , एक ही राह के
तुम अवसाद युक्त और मै................
बेखबर चली जा रही हूँ
इस आस में ,
हर राह की होती है मंजिल .
डगर के प्रत्येक द्रश्य को
कौतूहलता से देखो
तथ्यों में तथ्यों को खोजो
मात्र रोशिनी ही न स्वीकारो
अँधेरे में भी रोशिनी ढूंढो
कल नहीं अभी को सोचो
कर्तव्यपथ पर अडिग रहो ....
इन्ही का ही तो मै समिश्रण हूँ ...
मुझमे प्यार है
मुझसे प्यार है
देती हूँ , लेती हूँ ....
जीवन का हर एक सपना
होता है साकार मेरा
धरा के कण - कण , क्षण - क्षण को जीकर........
कहकर इतना चली गयी वह
ना जाने किस दिशा में
छोड़ मुझे विकलता में
सोचा मैंने -
हाँ - उसी का तो जीवन था
वह नहीं नाममात्र विदुषी
थी बल्कि वह साक्षात् विदुषी ....
महसूस कर उसको
चंचलता का संचार हुआ ...
नए विचारों का उद्गार हुआ
जो दे गए प्रेरणा
सतरंगी संघर्ष की .......................




प्रियंका राठौर

Tuesday, August 23, 2011

मेरी बातें...मेरे शब्द ....





मेरी बातें
मेरे शब्द ......

क्या करूं
जब किसी के
अंतर्मन के
शांत जल में
पत्थर की भांति
गिरते ही
लहरें पैदा कर जाते हैं .......

मेरी बातें
मेरे शब्द .....

क्या करूं
जब किसी  के
अहसासों के
शांत समुन्दर में
चाँद की भांति
ज्वार भाटे पैदा कर जाते हैं ......

मेरी बातें
मेरे शब्द ....

ये तो हैं रोशनी
उस दीपक की
जो जाने वाले
को प्रणाम हैं ......
यह मद्धम तो है
पर अँधेरे से दूर है .....
खुशियों का सागर
तो नहीं
पर आस की डोर हैं .......

मेरी बातें
मेरे शब्द .....
क्या करूं
जब किसी की
आत्मा को ही
झिंझोर जाते हैं .......

मेरी बातें
मेरे शब्द .......




प्रियंका राठौर

Monday, August 22, 2011

जय हिंद !!








अनशन का सातवाँ दिन ....उमड़ता जन सैलाब ....हाथों में तिरंगा सिर पर गाँधी टोपी ....एक अद्भुत अनेकता में एकता ....ना कोई मुस्लिम ना कोई हिंदू , ना कोई उच्च जाति या निम्न जाति और ना ही कोई गरीब या अमीर ...सभी ओर एक ही धर्म ....भारतीय होने का धर्म .....देश के हर कोने से एक ही आवाज ....भ्रष्टाचार हटाना है .....एक विहंगम द्रश्य ....जो देश विदेश में सराहना का पात्र बन चुका है....सत्ता की जड़ें अब हिलने लगी हैं ....व्यवस्था परिवर्तन की गूँज अब चारों ओर है .....अटल जी की पंक्तियाँ सार्थक प्रतीत होती नजर आ रही हैं ...


“कितने पत्थर शेष
कोई नहीं जनता
नए मील का पत्थर
तो अब पार हुआ ....”


बस एक चिंगारी की जरूरत थी ...जिसे शोला बनते देर ना लगेगी .....
नमन है उस इंसान को जिसने एक बार फिर सबको भारतीय बना दिया ....नमन है उस जज्बे को जिसने अनेकता में एकता की एक नयी मिसाल कायम कर दी ....और नमन है उन सभी बंधुओ को जिन्होंने इस अहसास को मूर्त रूप दे दिया ......जय हिंद !!



प्रियंका राठौर

Friday, August 12, 2011

एक पत्ता .....






मै एक पत्ता हूँ
अपनी साख से गिरा
वक्त के थपेड़ों में ,
दुनिया ने कहा -
वजूद ख़त्म ..........

गिरा जरूर
लेकिन -
कभी बन गया
डूबती चीटी का सहारा
तो कभी
शिव के आगे
बन गया
प्रसाद का पत्तल
तो कभी
किसी अल्हड
की किताब के
पन्नों तले
भाग्य को इठलाया ......

मै एक पत्ता हूँ
अपनी साख से गिरा
फिर भी
नहीं खत्म  है
मेरा वजूद
मै आज भी हूँ
हर दिल के करीब हूँ
और रहूँगा हमेशा
बनकर एक
सम्मानीय याद ...............

हाँ -
मै एक पत्ता हूँ .....



प्रियंका राठौर

Wednesday, August 10, 2011

संगनी......






नहीं चाहती मै
मरना अब
जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
निभाना चाहती हूँ
उन बातों को
जो बिन कहे ही
वादें बन गयी
तुम्हारे घर आँगन की
फुलवारी बन
तुम्हारा जीवन
महकाना चाहती हूँ ......
क्या हुआ
जो हम पहले ना मिले
या मिल कर भी
ना मिल पाए
कुछ उलझन थी
कुछ तड़पन थी
आज भी बाकी है
उन जख्मों के निशान
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद में है शामिल
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह .....
क्या हुआ जो
सात फेरों के जाल में
ना उलझे
या फिर उलझे और
फिर भी ना सुलझे
कुछ दर्द था
कुछ हालत थे
आज भी राख बाकी है
उस सुलगती हुयी चिता की
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद को स्याह कर गयी है
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह ....
लेकिन अब -
फिर से
जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
गुथी हुयी सी
डोर की तरह
तुम्हारी जिन्दगी में
तुम्हारी संगनी बनके ................!!!!!




प्रियंका राठौर

Monday, August 8, 2011

कुछ साल पहले ....






कुछ साल पहले हुआ करते थे
भूरे , चीनी , गोला , फुसरा और
न जाने कितने ...
हर एक की उच्छ्र्लंख उड़ान
मदमस्त बना जाती थी
काली - काली , लाल - लाल ,गोल - गोल
मटकती हुयी आँखें -
करती थीं उनके प्यार का इज़हार
होते हुए बहुत दूर
फिर भी बहुत करीब थे
क्या कहते थे वे -
क्रियाओं से समझ लेती थी .....
एक - एक रंग जीवन का
एक - एक साज जीवन का
उनसे ही था
फिर अचानक एक दिन -
चले गए वे ना जाने किस दिशा को ,
ना लौटकर आने के लिए ....
समष्टि बदली रंगहीन व्यष्टि में
टूटे साज ना जुड़ने के लिए .....
समय चक्र बढता गया -

एक बार फिर आया कोमू
चंचलता का ओढ़े दुशाला
नित नए रंगों में जीवन सजाता
फुदक फुदक कर मन बहलाता
उसकी क्रियाहीन क्रियाओं ने
जब दे दी दिल में दस्तक
उस पल आया एक जाना अनजाना रोष
चला गया वह भी ना जाने किस दिशा में .....
सपने टूटे , बिखरे रंग
एक एक कर आये कितने
और चले गए ....
सतत मानवीय प्रतिक्रिया से
करीब उनके रहते हुए भी
ना कर सके शामिल उन्हें जीवन में .....
सोचा -
नियति का यह भी है एक स्वरूप
किसी के जाने से पल नहीं थमता ....
लेकिन वह मूक प्रेम हो गया अमर
दिल के किसी कोने में
आता है उभर कर सामने
पल पल नयी टीस के साथ ....
कुछ साल पहले हुआ करते थे
भूरे , चीनी , गोला , फुसरा और
न जाने कितने ..........!!!!!!!!!!




प्रियंका राठौर


Thursday, August 4, 2011

समर्पण है .....





क्या बांधूं
अपने भावों को
अब शब्दों में ......
समर्पण है
समर्पण है
सब कुछ तुम पर
अर्पण है ....
गूँथ गूँथ कर
भावों को
बेणी बनाती जाती हूँ
मन मंदिर की
प्रतिमा में
तुम पर ही
अर्पित करती जाती हूँ ......
क्या दुनिया
क्या रिश्ते नाते
छोड़ मान सम्मान अब
सब कुछ -
तुम पर वार दिया
मन मंदिर के
इस आँगन में
सब कुछ -
 तुम पर हार दिया
अब रीतापन ही
जीत नजर आता है ....
मीरा से अहसासों में
जीवन श्याममय हो जाता है ..
तेरे ना होने में भी
होने को जीती जाती हूँ
आधे अधूरे जीवन में
तुममे ही पूर्ण हो जाती हूँ ......
क्या बांधूं
अपने भावों को
अब शब्दों में ......
समर्पण है
समर्पण है
सब कुछ तुम पर
अर्पण है ....



प्रियंका राठौर

Tuesday, August 2, 2011

काश !





काश !
तुम भी वही होते
जो मै हूँ ....
जीते एक साथ
चलते एक साथ
सुख - दुःख बांटते एक साथ
लेकिन -
सब अलग है
टुकड़ों सा बँटा बँटा सा
नदी के दो किनारों की
तरह .....
जो क्षितिज पर
दिखते तो साथ हैं
पर बहुत दूर हैं .......

काश !
तुम भी वही होते
जो मै हूँ .....


प्रियंका राठौर

Monday, August 1, 2011

सपने सलोनें .....






कितने खूबसूरत होते हैं सपने सलोनें
उस विशाल समुन्दर की तरह
जिसके अथाह की कहानियां
हैं जनप्रचलित .......
कभी भावों की लहरें , हिलोरे लेकर
अंतर्मन को भिगो जाती
तो कभी भयावह ज्वार भाटे की तरह
अस्तित्व को ही डुबो जाती ......
समुन्दर में तूफान का कारण
है पूर्ण चंद्रमा ....
लेकिन स्वप्नों में तूफान का कारण
शायद स्वयं की विशद मानसिकता
जिसके अथाह की कहानियां
हैं जनप्रचलित ...................!!!!



प्रियंका राठौर