चेहरे पर बोझिल भाव लिए
आँखों से अभिव्यक्त कर
चली आ रही थी नियमित चक्रानुसार .
द्रष्टव्य हुआ राह में एक कोमल गात
उम्र थी मात्र चार माह की , नाम विदुषी
अरुणलालिमय कपोल थे जिसके
पंखुड़ी सद्र्श सचल अंग .
देख के उसको लगता था
है नया लघु रूपांतरण प्रक्रति का .
बोली मुझसे , नयनों ही नयनों में
क्यों हो तुम बुझी - बुझी सी
जीवन तो है चंचलता का नाम
फिर क्यों तुम बनी अचंचला .
देख मुझे निरुत्तर -
खिलखिलाई और बोली -
अंदाज जीने का सीखो मुझसे
हम और तुम राही हैं , एक ही राह के
तुम अवसाद युक्त और मै................
बेखबर चली जा रही हूँ
इस आस में ,
हर राह की होती है मंजिल .
डगर के प्रत्येक द्रश्य को
कौतूहलता से देखो
तथ्यों में तथ्यों को खोजो
मात्र रोशिनी ही न स्वीकारो
अँधेरे में भी रोशिनी ढूंढो
कल नहीं अभी को सोचो
कर्तव्यपथ पर अडिग रहो ....
इन्ही का ही तो मै समिश्रण हूँ ...
मुझमे प्यार है
मुझसे प्यार है
देती हूँ , लेती हूँ ....
जीवन का हर एक सपना
होता है साकार मेरा
धरा के कण - कण , क्षण - क्षण को जीकर........
कहकर इतना चली गयी वह
ना जाने किस दिशा में
छोड़ मुझे विकलता में
सोचा मैंने -
हाँ - उसी का तो जीवन था
वह नहीं नाममात्र विदुषी
थी बल्कि वह साक्षात् विदुषी ....
महसूस कर उसको
चंचलता का संचार हुआ ...
नए विचारों का उद्गार हुआ
जो दे गए प्रेरणा
सतरंगी संघर्ष की .......................
प्रियंका राठौर