Tuesday, May 17, 2011
Sunday, May 15, 2011
पत्थर में भी दिल होता है ..........
है कठोर ,
पर है नहीं ,
पत्थर में भी दिल होता है ....
चुभता है जब ,
कभी कोई दर्द का शूल
तब चीर ह्रदय पत्थर का ,
बहती है प्रेमप्लावित जलधारा ...
अंतहीन सी , अविरल , निर्मल
प्रेममयी जलधारा -
हो जाता है सिक्त मरू जीवन का
धुल जाता है कलुष तन - मन का
नवीन भावों के संचार से
हो जाता है जीव भी अंतस का तृप्त ...
है कठोर ,
पर है नहीं ,
पत्थर में भी दिल होता है ..........
प्रियंका राठौर
Friday, May 13, 2011
दृढ़ इच्छाशक्ति
एक लघु बीज से विशालकाय वृक्ष का जन्म होता है। बीज-अंकुरित होने और विशालकाय वृक्ष का रूप धारण करने के पहले उसके बीज को धरती के भीतर गड़े रहना पड़ता है तब कहीं जाकर वह बीज वृक्ष के रूप में फिर से जीवन ग्रहण करता है अर्थात् एक प्रकार से उसे अपना अस्तित्व समाप्त करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। हमारे सामान्य जीवन में भी यह अद्भुत लीला चलती रहती है। जीवन में छोटी-सी-छोटी सफलताओं का भी अर्थ है। प्रत्येक महान उपलब्धि के पीछे वश में की गईं जटिल कठिनाइयों, रौंदी हुई बाधाओं तथा दबाई गई आपदाओं का इतिहास छुपा रहता है।
जीवन एक खेल है। किसी भी खेल में जीत केवल एक पक्ष की होती है। खेल पूरी ईमानदारी के साथ खेला जाए, यह मुख्य शर्त है। इसके अतिरिक्त आदर्श खिलाड़ी का गुण होता है कि वह जीत-हार, दोनों दशाओं में खेल-भावना नहीं छोड़ता। जीतने वाला निष्कपट भाव से विजयश्री की प्राप्ति करे और पराजित खिलाड़ी अपनी पराजय से कुंठित न हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो खेल के परिणाम होंगे- प्रतिशोध, रोष तथा भ्रांति। कभी-कभी पराजय इतनी गंभीर होती है कि उसे स्वीकार कर पाना सहज नहीं होता। मानव-स्वभाव ही ऐसा है कि वह विजय के गर्व से झूम उठता है। चाहे वह सामान्य स्तर की ही विजय क्यों न हो, उसका प्रफुल्ल होना स्वाभाविक है। विजय ही सब कुछ नहीं है। ऐसा भी होता है कि पराजय से हम बहुत-कुछ सीखते हैं। खेल की भावना से हारने वाले मनुष्यों में से ही उत्कृष्ट विजेता निकलते हैं। जीवन में आपको कैसी भी विपत्तियों का सामना करना पड़े, उनसे विचलित नहीं होना चाहिए। खतरों को झेलने के लिए सदैव तत्पर रहें। अधिक संभावना यही है कि आप ही की विजय होगी। सफलता अर्जित करने का यह एकमात्र मार्ग है। सफलता का द्वार खोलने के लिए दो प्रकार की कुंजियों की आवश्यकता पड़ती है। पहली कुंजी है, दृढ़ इच्छाशक्ति और दूसरी है, कठोर श्रम-साधना। दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना सफलता की कामना नहीं की जा सकती और कठोर श्रम-साधना के अभाव में विजयश्री अर्जित नहीं की जा सकती।
साभार - दैनिक जागरण
जीवन एक खेल है। किसी भी खेल में जीत केवल एक पक्ष की होती है। खेल पूरी ईमानदारी के साथ खेला जाए, यह मुख्य शर्त है। इसके अतिरिक्त आदर्श खिलाड़ी का गुण होता है कि वह जीत-हार, दोनों दशाओं में खेल-भावना नहीं छोड़ता। जीतने वाला निष्कपट भाव से विजयश्री की प्राप्ति करे और पराजित खिलाड़ी अपनी पराजय से कुंठित न हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो खेल के परिणाम होंगे- प्रतिशोध, रोष तथा भ्रांति। कभी-कभी पराजय इतनी गंभीर होती है कि उसे स्वीकार कर पाना सहज नहीं होता। मानव-स्वभाव ही ऐसा है कि वह विजय के गर्व से झूम उठता है। चाहे वह सामान्य स्तर की ही विजय क्यों न हो, उसका प्रफुल्ल होना स्वाभाविक है। विजय ही सब कुछ नहीं है। ऐसा भी होता है कि पराजय से हम बहुत-कुछ सीखते हैं। खेल की भावना से हारने वाले मनुष्यों में से ही उत्कृष्ट विजेता निकलते हैं। जीवन में आपको कैसी भी विपत्तियों का सामना करना पड़े, उनसे विचलित नहीं होना चाहिए। खतरों को झेलने के लिए सदैव तत्पर रहें। अधिक संभावना यही है कि आप ही की विजय होगी। सफलता अर्जित करने का यह एकमात्र मार्ग है। सफलता का द्वार खोलने के लिए दो प्रकार की कुंजियों की आवश्यकता पड़ती है। पहली कुंजी है, दृढ़ इच्छाशक्ति और दूसरी है, कठोर श्रम-साधना। दृढ़ इच्छाशक्ति के बिना सफलता की कामना नहीं की जा सकती और कठोर श्रम-साधना के अभाव में विजयश्री अर्जित नहीं की जा सकती।
Monday, May 9, 2011
नियति...... (लघु कहानी )
उस रात के वीराने में ,जहाँ दूर दूर तक हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था -वहां सिर्फ उसकी पायल की छम - छम ही सुनाई दे रही थी ... नहर की पगडंडियों पर भागते हुए वह किसी की सांसों को महसूस कर रही थी .....ये तो वही है जिसका इंतजार है ...जिसके लिए श्रंगार है ...पर दिखाई क्यों नहीं देता ....बस महसूस हो रहा है - एक करुण आर्तनाद और मद्धम होती सांसों की आवाज ....कुछ तो है ....कोई बंधन है .....फिर ये आँखें नम क्यों ?
उत्तर खोजने की उधेड़बुन में वह कहीं टकराई ....शरीर लहुलुहान हो गया था ....चुनरी उस झाड़ी में उलझ कर तार - तार हो गयी थी और चूड़ियाँ टूट गयी थीं ....लेकिन फिर वही छम - छम की आवाज उस वीराने को गुन्जायेमान करने लगी ...
भागते - भागते अब पायल के घुंघरू भी बिखरने लगे थे ....तभी फिर एक करुण अहसास महसूस हुआ ....वह रुकी - अँधेरा निगलने को आ रहा था ...लेकिन वह मंजिल पर पहुँच
चुकी थी - एक अजनबी ----लेकिन अपना सा ....जिसकी टूटती सांसें उसको छोडकर जा
नहीं पा रही थीं ...उसकी आँखों में भी एक इंतजार था - अनंत सा ..... आह ! ये कैसा बंधन है जो जुड़ कर टूटने को है ...क्या यही है वो जिसका इंतजार था - या फिर म्रग तृष्णा .....कांपते हाथों से उसने उस अजनबी को स्पर्श किया - स्पर्श के साथ ही सांसें चिर विलीन हो चुकी थी , लेकिन चेहरे पर त्रप्त - शांत चित्त मुस्कान बिखर गयी थी .....
उसकी आँखों से अश्रु धरा बह चली - उन आंसुओं के सैलाब में बंधन डूबता जा रहा था - कुदरत ने तो रास्ते भर में ही श्रंगार विहीन करना शुरू कर दिया था और इति होने तक उसका वैधव्य खुद व खुद दिखने लगा था ---- क्या मिलन और क्या विछोह .....इसी के साथ जीवन के विभिन्न आयामों का एक चक्र और शुरू ....................!!!!!!!!!!!!!!
प्रियंका राठौर
Wednesday, May 4, 2011
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