Friday, January 21, 2011

टूटते सपनों के साथ .....







टूटते सपनों के साथ
रिश्ते की चिता जलाती हूँ ,
उस सुलगती अग्नि बीच
खुद ही झुलसती जाती हूँ !
उम्मीदों के साथ
इंतजार को मुखाग्नि दे आई हूँ ,
उस जलती चिता बीच
खुद को ही छोड़ आई हूँ !
बुझते  ही  ज्वाला के
यादों की राख हाथ आनी है
और कांपते हाथों से 
बस तर्पण  करते जाना है !
हाँ -
टूटते सपनों के साथ ..................!!





प्रियंका राठौर  

Monday, January 17, 2011

एक और सत्य ....





आज जन्मा एक और सत्य
शिवत्व की कोख से !
कुछ सीमित लेकिन व्यापक ,
कुछ कुरूप लेकिन सुन्दरम ,
रंगहीन लेकिन रंगों की समष्टि ,
कुछ नहीं , लेकिन है सभी कुछ ,
कैसा यह आश्चर्य -
एक नहीं दो - दो जीवन !
क्या यह है परम सत्ता
अलौकिका की
है अन्तर्द्वंद  -
नहीं है हल
इस मूक प्रश्न का !
शायद -
जन्मा एक और सत्य
शिवत्व की कोख से .........!!





प्रियंका राठौर





Tuesday, January 11, 2011

एक कहानी......





मै हूँ एक अनोखी चिड़िया
काले नीले पंखों वाली
इंद्रधनुषी रंगों में लिपटी
एक अनोखी प्यारी चिड़िया ....
आओ सुनाऊ तुम्हे कहानी
कुछ खट्टी मीठी ये बात पुरानी
कहीं दूर एक वट डाल पर
था प्यारा एक आसियाना मेरा
माँ बापू , भाई बहन संग
हर दिन जिन्दगी सतरंगी थी !
वो वट डालों के झूले
वो पत्तों की ओट में छिपना
सुन माई की आवाज
फुदक फुदक कर बापस आना !!
यही बचपन की बातें हैं
यही बचपन की यादें हैं !!
कभी किसी कमजोर पल में
बैठ कर ये सोचा करती
सुनहली क्यों हैं माई मेरी
भाई बहन  क्यों  अलग - अलग
हूँ मै सबके बीच की
फिर भी क्यूँ हू कुछ अलग - थलग
सोच - सोच कर , समझ समझ कर
ना हल कर सकी पहेली को !!
वक्त के बदलते मौसम बीच
फिर से बसंत आया था
माई की आँखों ने एक बार
'सयानी' होने का अहसास कराया था
पंखों में थी अब ज्यादा ताकत
उड़ जाती थी ऊचे गगन तक !
सपने लगी थी बुनने अब
दूर देश को जाना है ...
वक्त ने ली करवट -
कोई अनजानी पर अपनी सी
आई थी हमारी वट डाल पर 
दूर से देखा लगी पहचानी 
पर थी तो वह अनजानी ही 
काले नीले पंखों वाली 
इंद्रधनुषी रंगों में लिपटी 
हाँ - कुछ मेरे जैसी ही 
उम्र तो थी माई जितनी 
पर थी तो बिलकुल अलग थलग 
ना जाने कहाँ से काले बादल छाये थे 
स्याह हो गया था सब कुछ 
जब माई ने उससे मिलवाया था 
जो थी अपनी वह नहीं थी अपनी 
पहचान कर भी जान  ना पाई थी 
वह अजनबी  ही मेरी माई है 
इस  अहसास को महसूस ना कर पाई थी !
नयी माई संग चली दूर देश को 
लेकिन जीवन रीता जाता था 
वो बचपन की यादें वो हंसी ठिठोली 
बीते कल की याद हो गयी  !
एक बार फिर वक्त ने ली करवट ....
सब कुछ बदलता जाता था 
ख़ामोशी के आसमां में 
तारे टिम टिम करते थे
दूर दूर तक उड़ जाती मै
खोये - खोये अहसासों के संग
कुछ ना मिलता उन वीरानों में
ना माई , ना बचपन ही ,
रिसते जख्मों से दर्द ही गहराता जाता था !
ऐसे ही किसी रोज एक तन्हाई में
एक अनजाना चेहरा नजर आया था !
पल पल में कण कण को जीने का
अहसास उसके कराया था !
अब जब जीवन उसमे  ही सिमटा जाता था
तभी अचानक  स्तब्धता को चीर देने वाला
तूफान एक आया था .....
खो गया वह नियति के उस चक्र में
गया छोड़ यादों के उस भंवर में
अब डूबते उतराते पलों में
जिन्दगी उलझी जाती थी !
एक बार फिर वक्त ने ली करवट .....
कही दूर आसमां में
सूरज ने तेज दिखाया  है
बादलों बीच छन छन कर
किरणें आने लगी धरा पर
सब कुछ है अब नया नया
फिर कही उपवन नजर आया है
हर डाली पे फूल हैं जिसमे
उन पर भंवरें गुन गुन करते है
मंद बयार के झोंकों बीच
पत्ते कम्पन करते है
पास बह रही नदिया की धारा
माटी को महकती है !
वहीं कहीं एक वट डाल पर
अब है मेरा आसियाना  नया ....
कही पपीहे की है चाह ,
तो कही चकोर का है प्रणय
कही मयूर का है झंक्रत न्रत्य
तो कही कागा की आवाजें है
कही इठलाती बलखाती तितलियाँ है
तो कही गुबरैले ने अपना चमन बनाया है
कही साँपों की फुंकार है
तो कही खरगोशों की अठखेलियाँ है !
भिन्न भिन्न जीवन के रंगों बीच
नही  खत्म है अभी ये  कहानी 
आज भी हूँ  मै -
एक अनोखी चिड़िया 
काले नीले पंखों वाली 
इंद्रधनुषी रंगों में लिपटी ...........





प्रियंका राठौर 









Friday, January 7, 2011

खोने और पाने के बीच ....





क्यूँ लगता है
खोने और पाने के बीच ,
खोने का पलड़ा भारी है !
रिश्ता है पर
भूला सा जाता है ,
बूँदें चेहरे पर
ढलक जाती हैं
और
एक साया सा घिरता आता है !
मीठी बातें ,
हंसी ठिठोली
तन्हाई बन जाती हैं !
शायद -
ध्रुव है ,
खोने और पाने के बीच ,
खोने का पलड़ा भारी है !





प्रियंका राठौर



Monday, January 3, 2011

चुप - चुप - चुप ......






चुप - चुप - चुप , चुप - चुप - चुप
हम तुम दोनों , क्यों हैं चुप ...
सर्द रात की स्याही में ,
कहीं चांदनी छिटक आई है ,
नन्हें - नन्हें तारों बीच ,
कहीं ध्रुव तारे ने आवाज लगाई है ,
अब तो धुंध भी छटने को है ,
फिर भी -
हम तुम दोनों , क्यों हैं  चुप ,
चुप - चुप - चुप , चुप - चुप - चुप ....


छा रही है लालिमा गगन में ,
चिड़ियों ने अपनी तान लगाई है ,
मंदिर के घंटों के बीच ,
कहीं आरती की आवाज आई है ,
अब तो कोलाहल होने को है ,
सूर्य का तेज तपिश बनने को है ,
फिर भी -
हम तुम दोनों , क्यों है चुप ,
चुप - चुप - चुप , चुप - चुप - चुप ....


रंग बिरंगे उपवन में ,
कही कलियों की सुगंध भरमाई है ,
मंद बयार के झोकों बीच ,
कहीं उम्मीद नजर आई है ,
अब तो वक्त बदलने को है ,
खुशियाँ आँगन भरने को हैं ,
फिर भी -
हम तुम दोनों , क्यों हैं चुप ,
चुप - चुप - चुप , चुप - चुप -चुप
चुप - चुप - चुप , चुप - चुप -चुप ..........





३१ दिसम्बर की वह सर्द रात ...जब एक ओर अस्पताल में जीवन और म्रत्यु का संग्राम हो रहा था तो दूसरी ओर नये साल का आगाज था .....तभी उस संग्राम में जीवन का विजयी उद्घोष हुआ ....ऐसे पलों में भावों की अभिव्यक्ति शब्दों में ढल गयी ....जो आप सबके सामने है .....

आप सभी को नव वर्ष मंगलमय हो .....



प्रियंका राठौर