Thursday, December 22, 2011

जीवन और म्रत्यु .....






एक हुआ निर्मित घट  ,
मिलाकर एक एक बूँद को 
भरा गया उसमे  
जीवन रूपी जल ......


भरता जा रहा था वह,
चलता जा रहा था वह ,


तभी अचानक -
हुआ कैसा अचम्भा ,
आकर कालचक्र ने 
किया घट में छिद्र .....


एक एक बूँद लगी रिसने 
और हो गया खाली पूरा घट .....


हुआ ख़त्म अस्तित्व घट का 
जल के ना होने से ..
जन्मी और ख़त्म हुयी 
एक और कहानी 
ना जीता कोई , ना कोई हारा
यही अटल शिव है 
प्रकृति का .....


यही शाश्वत सत्य है 
जीवन और म्रत्यु का ................!!!!!!!




प्रियंका राठौर 

Saturday, December 17, 2011

भार्या तुम्हारी ....




मै सीता 
कुलवधु मै  रघुकुल की 
भार्या  हूँ  राजा राम की ......
आज चाहती हूँ 
देखना खुद को 
फिर एक बार तटस्थ  भाव से -
सर्व समर्पित 
सर्व अर्पित 
मेरा जीवन 
क्या यूँ ही  है - व्यर्थ हुआ 
सतीत्व और नारीत्व 
के संघर्ष में 
बुन रही हूँ मै उलझनें 
हैं घेरे अनेक सवालों के -
हे मेरे भरतार  !
तुम ही हो 
मेरे जीवन की धुरी 
तुम्ही से सवाल हैं 
तुम्ही से जबाब हैं 
तुम बिन मेरा 
जीना ही निराधार है ....
फिर भी कुछ 
कहना है आज 
न सोचना तुम 
अन्यथा इसको ....
याद है - वो हमारा स्वयंवर 
कितने ही दिग्गज आये थे 
लेकिन चढ़ी प्रत्यंचा तुमसे ही 
और मै अर्धांगनी तुम्हारी कहलाई थी 
यह द्रश्य तो था जग  उजागर 
पर कुछ और भी था जो नहीं था द्रश्य 
वो प्रथम नयनों का गोपन 
जब तुम बगिया में आये थे 
उसी दिन शक्ति से माँगा था तुमको 
तभी तुम प्रत्यंचा चढ़ा पाए थे 
तुम्हारे स्वप्नों में आधा स्वप्न था मेरा भी 
तभी विवाह ये संभव हो पाया था .......

मंत्रोचारण और फेरों के भंवर  में 
तुम्हारे हर कदम की मै संगिनी थी 
वन  गमन के मार्ग में भी 
कितनी ही ठोकर खायी थीं ..
गर ना होती मै साथ तुम्हारे 
क्या हो पाता  पुष्ट  चरित्र तुम्हारा 
ना सुपर्णखा  होती  ना ही होता रावण 
ना होता वह धर्म युद्ध , ना होती वह विजय श्री 
दौड़ रही थी रगों में मै बन सकती तुम्हारी 
अन्यथा कैसे बनती मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कहानी ....

याद है - प्रजा  के एक अदने से इन्सान ने 
तुमसे अग्नि परीक्षा मेरी रखवाई थी 
गर ना देती मै वो अग्नि परीक्षा 
सोचा तुमने तब क्या होता 
राम राज्य की परिकल्पना  ना यूँ 
युगों  युगों तक पूजी जाती 
मै सीता थी , मै सती थी , मै शक्ति थी ,
इसलिए वह परीक्षा मापदंडों पर खरी उतर पाई थी 
जानती हूँ -- वह अग्नि मुझको तो ना छू पाई थी 
पर वही अग्नि  तुमको अन्दर तक झुलसा पाई थी .....
तुम पहले राजा राम थे  फिर मेरे भरतार 
पर मै - पहले थी भार्या  तुम्हारी  फिर थी रानी 
इसलिए  तुम्हारी हर बात पर दिया तुम्हारा साथ 
सतीत्व और पत्नी को सिद्ध करते करते 
नारीत्व को मै गयी भूल 
नारी सम्मान के प्रति 
कुछ दायित्व तो हैं मेरे भी 
आह ! चली गयी मै 
धरती की गोद में 
करके तुम्हारा बहिष्कार ......

हे भरतार !
जानते हो -
अब संतुलन सध गया है -
अब तक मै थी तुम्हारे साथ 
अब तुम मेरे साथ होगे 
हर गमन में मुझको तकोगे
हर  पल अग्नि  परीक्षा  दोगे 
दुनिया में मर्यादा  पुरुषोत्तम  कहलाओगे 
पर अन्दर ही अंदर तुम जलोगे ....

ना मेरे भरतार  !!!!
ये ना समझना तुम  -
कटघरे में  खड़ा करके तुमको 
कर रही हूँ मै अभिमान .......
जान लो - तुम से मै हूँ  , मुझसे तुम 
बिन सिया के राम कहाँ 
या राम बिना ये सिया कहाँ .....
तुम थे , तभी समर्पण था मेरा 
स्नेह , प्यार , सतीत्व  था मेरा 
ना तुम होते तो कैसे कहलाती सती राम की 
ये बातें तो बस जबाब हैं  मेरा 
उस नारी को 
जो कर रही है  सवाल मेरे 
सतीत्व और समर्पण पर ...
अग्नि परीक्षा सीता की क्यों 
क्यों नहीं परीक्षा राम की ......
मैंने तो दी एक परीक्षा 
और कर दिया बहिष्कार तुम्हारा 
लेकिन - उसके बाद 
जानती हूँ मै ----- बिन मेरे -
सारी परीक्षाएं  हैं सिर्फ तुम्हारी 
हर पल का जलना 
हर पल का घुटना 
फिर भी मुस्काना दुनिया के आगे 
जो जान सकती है सिर्फ भार्या  तुम्हारी 

यही बंधन है हम दोनों का 
दो पिंड पर एक जान हैं 
राम सिया हैं , सिया ही राम हैं 
जब जब राम का नाम आएगा 
सीता संग ही नजर आएगा 
शक्ति हूँ भरतार  तुम्हारी 
चाहे हो जाएँ  कितनी परीक्षा 
चाहे हो जाएँ कितने बहिष्कार 
हर बार -
पूजे जायेंगे सिया राम साथ ही साथ ......

हे भरतार !
अब शांत हूँ 
तृप्त हूँ 
कह कर अपनी बात तुम्हें 
ना कोई सवाल हैं 
ना कोई हैं उलझनें 
ना ही व्यर्थ हुआ है मेरा जीवन 
तुम थे - तभी मै सती कहलाई 
मै थी  - तभी तुम्हारी मर्यादा बन पाई 
यही सार है हम दोनों का 
जो समझती है सिर्फ 
भार्या  तुम्हारी 
भार्या  तुम्हारी .........!!!!!!!!



प्रियंका राठौर 




Sunday, December 11, 2011

मंजुला दी – ‘ एक संघर्ष गाथा ’ ...




कभी कभी यादों के झरोखों से बचपन के गलियारों में झांकती हूँ तो छुटपन की नजरों में एक धुंधला सा चेहरा नजर आता है .... एक लड़की का ... सांवली रंगत , तीखे नाक नक्श , सादगी से लबरेज , जिसकी दुनिया किताबों में ही उलझी है ... अपनी ३ वर्ष की उम्र पार कर मै फिर थोडा और आगे बढती हूँ तो फिर वही लड़की  नजर आती है – बेंइन्तहा खुश – हाथ में एक माला सा – लेकिन कपडे का , जिसमे सोने जैसा रुपया लगा है .... उस उम्र में तो उस माले का मतलब समझ ना सकी लेकिन आज , उम्र के इस पड़ाव में – स्पष्ट समझ पाती हूँ की वह स्वर्ण पदक था जो लखनऊ विश्वविद्यालय में अग्रणी होने के एवज में उन्हें दिया गया था .....

वह लड़की जिसका मै जिक्र कर रही हूँ – मेरी बहुत करीबी – खून के रिश्तों से भी बढकर – मंजू दी उर्फ मंजुला सिंह ,उम्र ४० पार , स्नातकोत्तर ( हिंदी साहित्य ) – लखनऊ विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक विजेता , और आज लखनऊ के ही एक प्रतिष्ठित विद्यालय की उप प्रधानाचार्या ......

बाल मन के खाली कैनवास पर कुछ रंग ऐसे उभरे हैं जो ताउम्र फीके नहीं हो सकते .... जब उनकी शादी हुयी थी .... बहुत रोई थी अपनी मंजू दी के लिए .... गुड़ियों के खेल में आंसू धीरे धीरे सूख रहे थे की एक दिन अचानक घर का दरवाजा खुला और चौखट पर एक खूबसूरत नवयौवना नजर आई .... ठगी सी थी – छुटपन की मै .... भरोसा ही नहीं कर पाई की यह वही सांवली रंगत है ..... सिल्क की साडी , सुर्ख लाल बिंदी , खुले लंबे बाल ... उस रत्न जडित आभा की चमक आज भी आँखों में बिजली सी पैदा कर जाती है .... कोई इतना भी खूबसूरत हो सकता है , बाल मन सोच भी नहीं पा रहा था .... लेकिन आज उस सुंदरता का अर्थ महसूस होता है .... शायद सुहाग की चमक हर औरत को खूबसूरत बना देती है ....

वक्त बढ़ रहा था , मेरी समझ भी विकसित हो चली थी – एक दिन पता  चला जीजा जी की नौकरी चली गयी – वे उपसंपादक थे , एक प्रतिष्ठित अखबार के . मंजू दी के घर की व्यवस्थाएं डगमगाने लगी थीं ... जीजा जी मन से टूट रहे थे – साथ ही एक नए मेहमान के आगमन की सूचना ....खुशियाँ मनाई जाएँ या हालत से लड़ा जाये..... पेड़ चाहे कितना भी हरा भरा क्यों ना दिखे , अगर जड़ें सडती हैं तो उसे गिरना ही है ....

उस बाल उम्र में पहली बार मैंने जाना की नारी की ताकत क्या होती है .... एक पत्नी क्या होती है .....एक बहु क्या होती है .....और एक माँ क्या होती है ..... दीदी फौलाद सी अपने पति का सहारा बन के खड़ी थी ... उन पर हुए शब्दों के प्रहार वे खुद झेल रही थीं और उनकी प्रेरणा बन कर उनको हिम्मत दे रही थीं .. सत्यवान - सावित्री की कहानी सुनी थी लेकिन साक्षात् सावित्री को मंजू दी के रूप में ही देखा ...पति कैसा भी हो – सात फेरों के बंधन को अटूट बना कर रखना आसान नहीं  होता .... लेकिन वो संघर्ष जी रही थी और खुद को सिद्ध कर रही थी ,,, शादी के बाद अक्सर लड़की मायके को मायने देती है .. लेकिन मंजू दी  - सबसे पहले एक बहु थीं ..... एक पत्नी थीं .....( जो आज भी हैं ) और ससुराल के सम्मान के आगे सारे रिश्तों को धराशायी कर रही थीं .... कभी कभी लगता है – अगर आज के दौर में भी नारी के अंदर अहम् की जगह समर्पण ले ले तो ना जाने कितने रिश्ते टूटने से बच जायेंगे . शायद समर्पण तो आज भी जिन्दा है लेकिन चमकती हुयी दुनिया के आवरण में ढक गया है – जो नारी के खुद के स्थापित करने की धुन में अहम् के रूप में ही नजर आता है ....

उन्होंने हालातों से लड़ते हुए स्कूल में पढाना शुरू किया .. नवजात बेटे को संभालना , पत्नी के दायित्वों की पूर्ति , सभी के साथ सामंजस्य बैठाते हुए ... एक नयी शुरुआत की .. एक कमनीय लड़की जिसने सिर्फ किताबों को ही हमजोली बनाया था .... आज वह वे सारे काम कर रही थी जो कल्पना से भी परे था ... हर कार्य में दक्ष – क्या पाक कला – क्या व्यवस्थित घर ... या सामाजिक रिश्तों को बनाना .... उनके जैसे व्यक्तित्व विरले ही मिलेंगे ..आज के दौर में भी ऐसी नारी ,,,, श्रद्धा से सर नतमस्तक हो जाता है .

आदि साहित्य में जिस तरह की आदर्श नारियों का वर्णन है आज के दौर में मंजू दी उसमे खरी उतरती हैं... यही कारण भी है की मै उन पर लिखने की हिम्मत भी कर पा रही हूँ .....
परम्पराओं को तोड़ आगे बढना आज की नारी का दायित्व सा हो गया है ... लेकिन परम्पराओं को बिना तोड़े मर्यादा के साथ संघर्ष का नर्तन एक धर्म युद्ध से कम नहीं है – जो मंजुला दीदी को आज की नारियों से , अलग दैवीय गुण दे देता है ....

मंजू दी का संघर्ष बहुत लंबा रहा – अनवरत रूप से – कभी रिश्तों से , कभी समाज से तो कभी खुद के शरीर से ... पी एच डी करना चाहती थीं , लेकिन शादी हो गयी , कर ना पायीं ...फिर भी एक शिक्षिका बन के कितने ही  जीवन रौशन किये ... २०१० बेस्ट टीचर का पुरस्कार उनकी झोली में आया ... साहित्य और दर्शन में उनकी किसी से बराबरी नहीं – महज किताबी ज्ञान नहीं – उन्होंने उसे जिया है जिस कारण वे खुद बा खुद सबसे अलग चमकती हुयी नजर आती हैं ...

पति को संभालना , घर और नौकरी देखना ,साथ ही बच्चों की अच्छी परवरिश और संस्कार देना – आसांन  नहीं था , लेकिन उन्होंने इसे सिद्ध कर दिया ....मुझे कहने में बिलकुल संकोच नहीं की उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया था जब उनके घर में दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से ही आती थी .... फिर भी वे अडिग थी ....संघर्ष कर रही थीं – किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये और कमतर में भी अपनी और अपने परिवार के सम्मान की रक्षा की .

कुछ और भी है जिसको बताए बिना उनका व्यक्तित्व अधूरा है – उनकी बेबाक सोच और सपाट बोली ... जो देखा , जो महसूस किया – तुरंत बोल दिया .. उनके इस स्वाभाव से कितने रिश्ते चोटिल भी हुए लेकिन उनका ये बेबाकीपन उन्हें औरो से अलग भी करता है .
नारियल सी मंजू दी दिखती तो कठोर हैं लेकिन अंदर से उतनी ही मुलायम ...जो जान गया –कभी छोड़ कर जा ही नहीं पाया ... जिस कारण आज भी वह सबके बीच श्रद्धा की पात्र हैं .. दो बेटों की माँ जो लगभग अपने – अपने कैरियर के स्थायित्व की कगार पर हैं ...पति खानदानी खेती संभल रहे हैं और वे खुद ...एक प्रतिष्ठित स्कूल की उप प्रधानाचार्या ....

हमेशा एक सूक्ति सुनती थी – “ जीवन एक संघर्ष है “ – लेकिन सागर सी गहरी, गीली माटी सी सोंधी मंजू दी के जीवन को देखकर यही जाना – की जीवन एक संघर्ष जरूर है जिसका विजयी उद्घोष होना सुनिश्चित है ...!!!!!




प्रियंका राठौर



Saturday, December 3, 2011

जीवन....




मुट्ठी की फिसलती रेत सा
जीवन छुटा जाता है ,
बंधने की कोशिश में
बंधन ही बनता जाता है !
दीपक की लौ सा जलता - बुझता
रंगों बीच स्याही सा ,
जीवन बीता जाता है !
माँ की सूनी कोख सा,
विधवा के हाथ सिन्दूर सा,
जीवन रीता जाता है !
बंधने की कोशिश में
बंधन ही बनता जाता है........!!






प्रियंका राठौर

Thursday, December 1, 2011

वह...












रोज की तरह आज भी उसने जींस और टी-शर्ट पहन रखी थी और अपनी कार घर   के भीतर  खड़ी करने जा रही थी !तभी उसको दो महिलाओं के स्वर सुनाई पड़े ....
"देखो ! कैसी कुल्टा औरत है.......पति को छोड़ आई , बेचारा क्या ना करता "
"हाँ ! तलाक़ तो देता ही ...."
"ना लाज है ना शर्म है - जींस पहनकर मोडर्न बनी घूमती  है ! आँखें तो कभी नम दिखी ही नहीं !!"
"क्या जमाना आ गया है !!........."



नौकर के गेट खोलने से उसकी तन्द्रा भंग हुई और वह गाड़ी लेकर आगे बढ गयी ! उस पल उसके अंदर एक तूफान उठ रहा था ....एक सवाल था---क्या वे सच कह रही थीं ? ? 


नहीं ------


उसकी आँखें भी नम होती थीं लेकिन किसी को दिखाने के लिए नहीं !! कहीं एक दर्द उसके  अंदर भी था !!  शायद  आधुनिकता  का  जामा तो उसके लिए  एक भुलावा मात्र  था उन यादों से बचने के लिए .............जिसमें सिंदूर  व  बिंदिया का रंग , साड़ी की महक  व चूड़ियों  की खनक  मौजूद  थी !!!! 

priyanka rathore 

Saturday, November 19, 2011

'मधुशाला '......





हल्की - हल्की
सर्द - सर्द सी
ऐसी ही उस रात -
भटकते - भटकते
देखी थी  वह
'मधुशाला '
ना जाना , ना समझा तब
बस अनुभव की ही
बात हुयी थी .....
'मधुशाला ' से 'मधुशाला ' तक
एक लम्बे सफ़र की
चाह हुयी थी ....

सवाल - जबाब के
मकडजाल में
रिश्तों की उलझन
बन आई थी ...
तुम थे
मै थी
और कुछ
अनकही सी नजदीकियां थी ....
मौन सी -
निशब्द सी ,
बातों में
कोई अहसास उभर के आया था .....

भावों की दस्तक ने
राहें कर दी
जुदा - जुदा .....
जीवन की उधेड़बुन में
बदल गया है
सब कुछ कितना ,
शेष रह गयीं हैं -
बस -
वक्त की जंजीर में जकड़ी
स्तब्ध सी ये नजरें
जो तकती हैं
राह आज भी
'मधुशाला ' से 'मधुशाला ' तक की ...........!!!!!!



प्रियंका राठौर

Monday, November 14, 2011

संघर्ष ...





हर दिन का संघर्ष
खुद का खुद से .....
नोंच नोंच कर
खरोंच खरोंच कर ,
खुद को गढना ,
उस स्थिति में ढालना
जो स्वीकार्य हो
उस ढांचे को
जिसके साथ
जीना है , चलना है .....
लेकिन –
पूरी प्रक्रिया में
रिसते हुए दर्द
और जख्मों को
मुस्कराहट के
मुखौटे में छिपाना
है उससे भी कठिन .....
कभी – कभी
साम्य महसूस होता है –
खुद में और मुक्तिबोध के ‘ब्रह्मराक्षस’ में
योग्यता का चरम ,
अव्यक्त भावनाएं ,
खुद को सांचे में
ढालने का क्रम ,
और उनसे उपजी
कुंठाओं और निराशाओं
का अंबार........
मुक्ति संभव नहीं ........
सिर्फ –
अक्षुण सी
उम्मीद और इन्तजार
ढाँचा बदलेगा
या
खुद ढल जायेंगे
संघर्ष जारी है ,
अनवरत रूप में .................!!!!


प्रियंका राठौर 


Wednesday, November 9, 2011

वह संदूकची ......









ताड़ पर रखी
वह संदूकची
धूल और जालों में सनी
फिर नजर आई ....
ख्यालों में गोते
लगाने के लिए
चाह हुयी उसे खोलने की
वह संदूकची
यादों को खुद में
समेटे वह संदूकची ....
बामुश्किल -
कापतें हाथों से खीच ,
उतार लायी ..
क्या गर्द हटाऊ
या फिर खोल ही दूँ
या फिर युही
सहेज कर रख दूँ
बापस ताड़ पर .....
उधेड़बुन के
इस भंवर में
संदूकची से आती
कुछ आवाजें
सुनाई दी .....
आह !
कौन है -
कैसे हुआ -
ये करुण आवाजें .....
अब तो खोलना ही है
मुक्त तो करना होगा
उनको - जो बंद हैं
बरसों से इसमें .....
धडकनों को थामे
आहिस्ता - आहिस्ता
खुल रही थी
संदूकची -
आह !
ये क्या -
जो कुछ बहुत
करीने से , सहेजकर
रखा था -
आज बिखरा सा था
टुकड़ों में बँटा सा था
गंध और भभक से
भरा हुआ था
उस गंध के दलदल में
कितने जीवन पनप गए थे
अस्तित्व हीन से
रेंगते हुए कीड़े
जो खुद कारण थे
उस गंदगी के
या -
गंदगी में पनपे थे
कह नहीं सकती
सोचा -
दुर्गन्ध हटाऊ
या फेक दूँ ....
सामने खुली पड़ी
वह संदूकची
गंदगी में लिपटी
अजीब सा मंजर था
उस गंदगी और सड़न बीच
निकलते हुए अहसास
मानसिक वेदनाओं का दौर
लेकिन कुछ बेहतर भी
करुण आवाजें -
मुक्त हो गयी थी
दुर्गन्ध खत्म होने लगी थी
और रेंगते हुए कीड़े
खुद व खुद ना जाने कहाँ
गुम हो गए थे -
अंतस अब शांत था
बहते हुए मोती
गर्द हटा चुके थे .....
वह संदूकची
अभी भी थी
अपने बिखरे व
टूटे फूटे सामान के साथ
लेकिन गंदगी
विलीन हो चुकी थी .....................!!!!!!!!



प्रियंका राठौर


 



Tuesday, November 8, 2011

'सुकून'




चली थी ढूँढने
'सुकून' किसी का ......
पर हो गयी
विस्मृत सी ......
कौन है ?
कैसा है ?
है किसका ये नाम ?
जब नहीं जानती 
मै ही
तो क्या पाऊँगी
'सुकून' किसी का ......
विचारों और खोज
के मंथन में
गयी नजर तब
आसमान के रंगों पर ,
वो शांत भाव में
ढलता सूरज ,
वो मंदिर के
घंटों की गूँज ,
चिड़ियों की कलरव संग
बच्चों की किलकारियां ,
मीठी - मीठी हवा की ठंडक ,
कहीं दूर से आती
धुन पर पैरों की थिरकन ,
या फिर -
छत पर पड़े पानी
में युहीं छप - छप करना ,
तो कभी बैठे - बैठे
आसुओं की दो बूँद
टपका देना ......
क्या है ये सब
कैसा ये अहसास है -
तब सोचा ,
महसूस किया ,
खुद का खुद में
डूबने का क्रम
'सुकून' ही तो है
कुछ पल के लिए ही सही
लेकिन -
'सुकून' तो है ........
'सुकून' तो है ........

चली थी ढूँढने ............!!!!!!!!!



प्रियंका राठौर