Tuesday, November 23, 2010

तुम बिन ...




निधि जी आपके अनुरोध पर 'तुम बिन' नये कलेवर में ......




तुम बिन सब सूना है ,
ये कमरा और ये गलियारा,
लगता है हर आहट पर,
तुम थे हाँ तुम ही तो थे,
हर पल का साथ याद आता है,
लेकिन फिर....होता है महसूस ,
तुम तो बहुत करीब  हो ,
हमारे अहसासों के बीच हो,
तुम ही तो हो ,
बेबो की किलकारी में,
चिड़ियों की कलरव में,
आसमान की स्याही में,
हवा की ठंडक में ,
हाँ , तुम ही तो हो-
सूरज की पहली धूप में,
घुंघरू की रुनझुन में,
मंदिर के घंटें में ,
और ईश्वर की प्रार्थना में !
तुम तो एहसास हो-
हर दम हर पल साथ हो
फिर क्यों ?
तुम बिन सब सूना है
ये कमरा और ............................!!!



प्रियंका राठौर

Saturday, November 20, 2010

एक चादर है सूनेपन की......






एक चादर  है सूनेपन की
साथ होने पर भी
तन्हाई है ..
क्या यही प्यार है ?
शायद -
प्यार और तन्हाई ही
धागा और मोती हैं ..
सब कुछ है ,
पर कुछ भी नहीं है !
एक चादर है सूनेपन की
साथ होने पर भी
ख़ामोशी है ..
क्या यही प्यार है ?
शायद नहीं -
प्यार अंतस से होता है
और जब होता है
रंगों का समां होता है ..
खो जाती है तन्हाई और ख़ामोशी
पर शायद -
एक चादर है सूनेपन की
साथ होने पर भी
तन्हाई है , ख़ामोशी है ..............





प्रियंका राठौर




Monday, November 15, 2010

अश्रु बिंदु ....





दिल ने दी चुपके से मन को दस्तक ,
मन ने सोचा ,समझा और अहसास कर ,
ढाल दिया अपने वजूद को ,
नेत्रों में बनाकर अश्रु बिंदु जल !
आकर हथेली पर अश्रु ने ,
पूछा मुझसे प्रश्न -
"मै तो हूँ तुम्हारा ही अंश -
दिलों की भावना ,
मन की कल्पनाशीलता से ,
निर्मित मूक प्रेम की स्मृति !
फिर आज ऐसा क्या हुआ -
जो तुमने मुझे पृथक किया ?"
प्रश्न का जाल छटपटाहट रूप में
था समक्ष उपस्थित ..
निरुत्तर - उत्तर ही था सामने ..
कहा मैंने उससे -
पृथक होकर भी ,
नहीं किया पृथक तुम्हे ,
मुझसे तुम हो , तुमसे मै,
प्रमाणित अस्तित्व तुम ,
और वेदना हूँ मै !
फिर भी तुम क्यों
नहीं समझ सकते हो ?
मात्र शरीर को छोड़ देने से ,
तुम नहीं हो गए अस्तित्वहीन ,
तथापि अब तो तुम हो ,
और भी करीब ,
यहीं कहीं अहसासों में ,
सांसों में ,
हर क्षण - हर पल
हर क्षण - हर पल !!




प्रियंका राठौर

Wednesday, November 10, 2010

हो गयी मै तो जोगन रे......







हो गयी मै तो जोगन रे ,
छोड़ चुनरिया लाज शरम की ,
अपनी सुध - बुध खोयी रे !
अंजन छूटा , छूटी मेरी बिंदिया रे ,
कंगन टूटा , रूठी पाजेब की झंकार रे ,
लाल लूगड़ा ज्वाला लागे ,
श्रंगार तड़पन बन जाये रे ,
विरहन की अग्नि में जल - जल ,
हो गयी तेरी परछाई रे !
हैं सांसें अब मद्धम - मद्धम ,
जीवन मेरा छूटा जाये रे ,
ओढ़ ओढ़नी जोग की तेरी ,
हो गयी मै तो जोगन रे !!




प्रियंका राठौर

Tuesday, November 9, 2010

मन पर नियंत्रण....

मानव-जीवन के समस्त क्रियाकलाप एवं रचना-संसार का हमारा अपना मन ही मूलाधिष्ठान होता है। मनोनिग्रह का अर्थ है मन की वृत्तियों का निग्रह या मन को बस में करना। हमारे इस मन की चतुर्विध वृत्तियां होती है-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन के तीन उपादान है-सत्, रज और तम। संपूर्ण भौतिक और मानसिक क्रियाओं में हमारा मन एक रूप में कभी नहीं रहता है। इन्हीं तीनों उपादानों से हम संचालित होते है। सत हमें सद्गुणों की ओर ले जाकर ज्ञान और आनंद देता है। कार्यो में उत्कृष्टता लाता है तथा मन ही संकल्पशक्ति को धैर्य प्रदान करता है। यह दैवीय गुणों की प्रतिष्ठापना में योगदान देता है। जबकि रज का प्रभाव काम का प्राबल्य, क्रोध और लोभ की उत्पत्ति करता है। रजोगुण से पाप की उत्पत्ति होती है।
हर व्यक्ति स्वभाव, आचरण और व्यवहार तथा कार्य में एक सा नहीं होता है। उसके मूल में इन तीन गुणों की मात्राओं के सम्मिलित तथा हेरफेर से भिन्नता परिलक्षित होती है। मन का तीसरा और अंतिम उपादान है-तम। तम जड़ता का तत्व है, निष्क्रियता का प्रतीक है। इसी तम के बाहुल्य से व्यक्ति में अवसाद उत्पन्न होता है। तम हमारे मन को बिखेरकर आलसी और अकर्मण्य बना देता है। सत् हमारे पुण्यों का उत्पादक होता है। रज क्रियाशीलता, काम-वासना और पापों की ओर प्रवृत्त करता है। तम निष्क्रियता को बढ़ाकर न पुण्य का अर्जन करता है और न पाप का। जिस व्यक्ति ने अपने मन को अपने अधीन बना लिया, वह मनोनिग्रह में कदम रखने में सक्षम हो सकता है, क्योंकि कहा गया है कि जिसका मन नियंत्रित है वही मानसिक रूप से मानसिक रोगों से मुक्त रहेगा और मानसिक रोगों से मुक्तिपाने पर शारीरिक पीड़ाओं से भी दूर रहेगा। मनोनिग्रही, व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास पाने का पक्षधर होगा। उसका मन उसके नियंत्रण में होने से भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का वरण करेगा। मन को अपने बस में करने वाला ही संसार को जीतने की साम‌र्थ्य रख सकता है। मनोनिग्रही व्यक्ति दैवीय गुणों से आपूरित होने पर ही समाज का और राष्ट्र का कल्याण कर सकने में समर्थ हो सकता है। साथ ही आध्यात्मिक जगत की शक्ति पाने के लिए सक्षम होता है। मन की चंचल वृत्ति को निग्रहीत करना ही मनोनिग्रह है।




साभार : दैनिक जागरण

Thursday, November 4, 2010

दीप का प्रकाश




स्वयं को जलाकर दूसरों को प्रकाश देने वाला दीपक कहा जाता है। स्वार्थ से दूर रहकर लोकमंगल का शाश्वत अनुष्ठान इस चेतना का मूल मंत्र है। दूसरों की पीड़ा दूर करने के लिए तिल तिल जलना ही जीवन दीप बनाता है। ज्योतित करने वाला आलोक पर्व श्रद्धा का मंगल विधान है। आशा की लौ जगाकर निराशा का तम दूर करता है दीपावली का पर्व। केवल अपने आंगन में ही नहीं वंचितों, दीन-हीनों के घर में भी दीप जलाने से यह पर्व संस्कृति का अंग बनता है। लक्ष्मी के हाथ का अमृत पीने से हमें जीवन की पूर्णता नहीं मिलेगी। लक्ष्मी और सरस्वती में बैर नहीं है। प्रकाश मानव जीवन का पावन प्रतीक है। तमसो मा ज्योतिर्गमय का उद्बोधन उपनिषद का है। इसी से जुड़ा है सत्यमेव जयते। हृदय की करुणा और संवेदना के बिना दु:खियों का दु:ख हटा पाना कठिन है। मंगल विधान के दो भाव है-करुणा और प्रेम।
प्रेम रंजन की ओर मोड़ता है तो करुणा रक्षा की ओर। किसी को अपना मान लेना ही करुणा है। दीप का सार्वभौमिक रूप सर्वकालिक और सनातन है। एक दीप दूसरे दीप के नीचे का अंधकार दूर करता है। ऋग्वेद में वर्णित है कि ऋतु और सत्य पहले उद्भूत हुए। रात्रि और उसके बाद समुद्र संवत्सर आदि उत्पन्न हुए। मैत्रेय उपनिषद में आया है-तमोबाहदमग्र आसीदेवम्। सर्वप्रथम यह सब एकाकी तम था अर्थात् तमोगुणी अंधकार था। कालांतर में इससे रज और सत्व हुए। एकता, समरसता और समानता के संगम से मानवीय मूल्यों का समावेश होता है। दीपों की पंक्तियां जब तक हर घर में नहीं जलेंगी तब तक मानवता में पूर्ण प्रकाश और शांति असंभव है। दीपावली से अनेक महापुरुषों का तादात्म्य होने के कारण इस पर्व का महत्व और भी बढ़ गया। धर्म, कर्म, ज्ञान, अध्यात्म की अलौकिक मंगल कामना दीवाली का पर्याय है। जीवन में ज्योति का तात्पर्य है जागतिक दु:ख से निवृत्ति पाकर परमानंद प्राप्त करना है। अंधकार दु:ख है और प्रकाश सुख। प्रेम में ही इस पर्व की सार्थकता है। विश्वबंधुत्व की आधारशिला है दीप का प्रकाश। यह पर्व केवल ज्ञान की ज्योति, विद्या की किरण फैलाने आता है। दीपावली पर्व से अच्छे कार्य आरंभ किए जाते है। दीपावली सद्कर्म सद्गुण की ओर प्रेरित करती है।



साभार : दैनिक जागरण

Tuesday, November 2, 2010

इच्छाओं-कामनाओं से मुक्ति.....

 


ऋषियों-मनीषियों ने मनुष्य की असीम इच्छाओं-कामनाओं को देखा, फिर एक सच्चे पारखी की तरह इस मन को परखा और निर्णय दिया कि मन ही इच्छाओं का केंद्र बिंदु है, उसका जनक और पोषक है। तब उन्होंने दृढ़ निश्चय, दृढ़ विश्वास के साथ यह निर्णीत किया कि मन ही बंधन का कारण है- 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो।'' मनीषियों ने इस बंधन से मुक्ति का उपाय भी बताया कि मन को निर्विषय कर देना ही मुक्ति-पथ का बोध है। मन का निरोध ही योग है।
चित्त की चार स्थितियां है-करुणा, मैत्री, मुदिता और उपेक्षा। अपने से कमतर लोगों के प्रति करुणा का भाव, अपने सम स्तरीय के प्रति मैत्री का भाव, जो अपने से वरेण्य है उनके साथ मुदिता का भाव और जो दुष्ट प्रवृत्ति के है उनके प्रति उपेक्षा का भाव, इन स्थितियों को पा लेना ही जीव का लक्ष्य होना चाहिए। यदि चित्त को स्थिर कर लिया जाये तो ही जीव इन स्थितियों को प्राप्त कर पाता है। मन, बुद्धि पर विजय पा लेता है, यही योग है। 'भगवत गीता' में भी इसी आध्यात्मिक उपलब्धि का तुमुल घोष है। भगवान वेदव्यास ने भी 'योग: चित्तवृत्ति निरोध:' की बात कही है। उनके अनुसार व्यापक मन की नकारात्मक चिंतन-झंझा को थामना ही योग है। यहां सकारात्मक एवं लोकोपकारी चिंतन के निषेध की बात नहीं कही गई है, बल्कि केवल इंद्रिय-लोलुप, नकारात्मक एवं मूल्य विनाशक वृत्ति अर्थात् विचारों की झंझा को निरुद्ध करने की बात कही गई है, किंतु निश्चित रूप से यह साधना बहुत कठिन है, इसका वाह्यं-विलास से कुछ भी लेना देना नहीं है। साधक ज्ञान, भक्ति एवं योग के अनवरत अभ्यास से इसकी प्राप्ति करता है। ऐसे मनीषियों को आप्तऋषि कहा गया है। इस साधना का मंच संसार नहीं है। त्रिविध एषणाओं से मुक्त साधक ही इसकी मंजिल तक पहुंचकर आत्मोद्धार एवं जनोद्धार कर सकता है। भले ही हम कबीर, तुलसी आदि न बन सकें, पर अपने इस जन्म में इस दिशा में कदम तो बढ़ा ही सकते है। यदि हमने मन पर थोड़ा संयम रखना सीख लिया तो धीरे-धीरे अभ्यास से मन को निर्विषयी भी बना सकेंगे और चित्त स्थिर होगा।



साभार : दैनिक जागरण